________________ कर्म मीमांसा एवं योग (अ) कर्म : स्वरूप एवं प्रकृति समस्त भारतीय सन्तों ने, महर्षियों ने, तत्त्वचिन्तकों ने कर्मवाद पर गहरा चिन्तन किया है। जैन, बौद्ध, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, मीमांसक आदि सभी दार्शनिकों ने कर्मवाद के संबंध में अनुचिन्तन किया, जिसकी प्रतिच्छाया धर्म, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, कला आदि समस्त विद्याओं पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। किन्तु जैन परम्परा में कर्मवाद का जैसा सुव्यवस्थित वैज्ञानिक रूप उपलब्ध है, वैसा अन्यत्र नहीं है। कर्म सिद्धान्त की गवेषणा का मुख्य कारण विश्व के विशाल मंच पर छाया हुआ विविधता, विचित्रता एवं विषमता का एकछत्र साम्राज्य है। कर्माधीन जीव जन्म, जरा और मरण के भय से भयभीत चारों गतियों और चौरासी लाख योनियों में अलग-अलग रूपों और अलग-अलग स्थितियों में भटकता रहता है। प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख तथा तत्संबंधी अनेक अवस्थाएँ कर्म की विचित्रता एवं विविधता पर ही आधारित हैं। सब संसारी जीवों के कर्मबीज भिन्न होने से उनकी स्थिति, परिस्थिति, सूरत, शक्ल की विलक्षणता है। मानव जाति को ही देखें-मनुष्यत्व सबमें समान है, पर कोई राजा है तो कोई रंक, कोई बुद्धिमान है तो कोई मूर्ख, कोई धनी है तो कोई निर्धन, कोई सबल है तो कोई निर्बल, कोई रोगी है तो कोई निरोगी, कोई भाग्यशाली है तो कोई भाग्यहीन, कोई रूपवान है तो कोई कुरूप, कोई लखपति है तो कोई राखपति, कोई करोड़पति है तो कोई रोड़पति है, कोई सेठ है तो कोई नौकर, कोई सुखी है तो कोई दुःखी, कोई सज्जन है तो कोई दुर्जन, कोई उन्मत है तो कोई विद्वान्, कहीं जीवन, कहीं मरण आदि अनेक विविधताएँ पाई जाती हैं। सर्वत्र वैचित्र्य ही दिखता है तथा जीवन में भी अनेक विषमताएँ हैं। हमारा जीवन भी आशा-निराशा, सुख-दुःख, प्रसन्नता-अप्रसन्नता, हर्ष-विषाद, अनुकूलता, प्रतिकूलता आदि अनेक परिस्थितियों से गुजर रहा है। जीवन में कहीं समरूपता नहीं है। जगत् को इस विविधता और जीवन की विषमता का कोई-न-कोई तो हेत होना चाहिए। वह हेत है-कर्म। कर्म ही जगत् की विविधता एवं जीवन की विषमता का जनक है। व्यावहारिक जीवन में कोई इसे नसीब, भाग्य, कुदरत, नियति, पुरुषार्थ आदि मानते हैं। प्राणी मात्र को जो सुख और दुःख की उपलब्धि होती है, वह स्वयं किये गये कर्मों का ही प्रतिफल है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल प्राप्त करता है। एक प्राणी किसी अन्य प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता। प्रत्येक प्राणी का कर्म स्वसम्बद्ध होता है, परसम्बद्ध नहीं।' जैन परम्परा में जिस अर्थ में कर्म शब्द प्रयुक्त हुआ है, उस अर्थ में अथवा उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य दर्शनों में निम्न शब्दों का प्रयोग किया गया है। माया, अविद्या, प्रकृति, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि। माया, अविद्या और प्रकृति शब्द वेदान्त दर्शन में उपलब्ध है। अपूर्व शब्द मीमांसा दर्शन में प्रयुक्त हुआ है। वासना शब्द बौद्ध दर्शन में विशेष रूप से प्रसिद्ध है। आशय शब्द विशेषकर योग तथा सांख्य दर्शन में उपलब्ध है। धर्माधर्म, अदृष्ट और संस्कार शब्द विशेषतया न्याय एवं वैशेषिक दर्शन में प्रचलित है। दैव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि अनेक ऐसे शब्द हैं, 321 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org