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________________ करते हैं अर्थात् द्रव्य पर्यायस्वरूप वस्तु में मुख्य रूप से द्रव्य का अनुभव कराता है, सामान्य को ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिक नय है।159 अथवा द्रव्य में आस्तिक है, पर्याय में नहीं, वह द्रव्यार्थिक नय है।160 राजेन्द्रसूरि ने उत्तराध्ययन सूत्रोक्त द्रव्यार्थिक नय की व्याख्या करते हुए कहा है कि तदाकार अनुयायियों को उसी का सबोध कराने का विषय होने से समस्त स्थास, कोश, कुश-कपाल आदि आकारों का अनुयायी मृदादि द्रव्य ही सत्पदार्थ है, क्योंकि स्थास, कोशादि में द्रव्य रूप से तो मृद द्रव्य के अलावा अन्य कुछ भी प्राप्त नहीं होता। अतः वह तरंगादियुक्त सरोवर का जल केवल अपद्रव्य है, उसी तरह तथा आविर्भाव-तिरोभाव की मात्रा से युक्त सभी भेद-प्रभेदों को गौण करके द्रव्य को ग्रहण करता है।। अभिधान राजेन्द्रकोश के अनुसार नैगम, संग्रह और व्यवहार-ये तीन द्रव्यार्थिक नय हैं। उपाध्याय यशोविजय ने द्रव्यार्थिक नय की परिभाषा जैन तर्क परिभाषा में इस प्रकार की है-तत्र प्राधान्येन द्रव्यमात्रग्राही द्रव्यार्थिकः। द्रव्यार्थिक नय की पुष्टि करते हुए फिर उपाध्याय यशोविजय ने नय रहस्य में बताया है कि-द्रव्यमात्रग्राही द्रव्यार्थिकः। जो द्रव्य मात्र को ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिक नय है। पर्याथार्थिक नय अभिधान राजेन्द्रकोश में पर्याय की व्याख्या करते हुए कहा है-धर्म, पर्यव, पर्याय, पर्यय-ये सब पर्याय के पर्यायवाची नाम हैं। 65 सर्वथाभेद को प्राप्त करना पर्याय है।16 अथवा द्रव्य के गुणों के विशेष परिणमन को पर्याय कहते हैं।67 अथवा द्रव्य के क्रमभावी परिवर्तन को पर्याय कहते हैं।168 . अभिधान राजेन्द्रकोश में आचार्यश्री ने पर्यायार्थिक नय की परिभाषा बताते हुए कहा है कि पर्याय ही जिसका प्रयोजन (अर्थ) है, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं।16 पंचाध्यायी के अनुसार द्रव्य के अंश ' को पर्याय कहते हैं। इनमें से जो विवक्षित अंश है, वह जिस नय का विषय है, वह पर्यायार्थिक नय है। मोक्षशास्त्र में पर्यायार्थिक नय के विशेष, अपवाद अथवा व्यावृत्ति नाम बताये हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार सर्वभावों की अनित्यता का अभ्युपगम कराने वाला यह नय मूल नय का भेद है। ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ एवं एवंभूत-ये चार पर्यायार्थिक नय हैं।173 उपाध्याय यशोविजय ने नय रहस्यों में पर्यायार्थिक नय की व्याख्या करते हुए लिखा है किपर्यायमात्रग्राही पर्यायार्थिक। जो नय पर्यायमात्र का ग्रहण करावे, उसको पर्यायार्थिक नय कहते हैं। - जैन तर्क परिभाषा में भी उपाध्याय यशोविजय ने पर्यायार्थिक नय को परिभाषित करते हुए कहा है-प्राधान्येन पर्यायमात्रग्राही पर्यायार्थिकः। 75 व्यावहारिक तथा नैश्चयिक दृष्टि व्यवहार और निश्चय का झगड़ा पुराना है। जो वस्तु जैसी प्रतिभासित होती है, उसी रूप में वह सत्य है या किसी अन्य रूप में। कुछ दार्शनिक वस्तु के दो रूप मानते हैं-प्रातिभासिक और पारमार्थिक। महावीर ने वस्तु के दोनों रूपों का समर्थन किया और अपनी-अपनी दृष्टि से दोनों का पर्याय बताया। इन्द्रियगम्य वस्तु का स्थूल रूप व्यवहार की दृष्टि से यथार्थ है। इस स्थूल रूप के अतिरिक्त वस्तु का सूक्ष्म रूप भी होता है, जो इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता। यह केवल श्रुत या आत्मप्रत्यक्ष का विषय होता है, यही नैश्चयिक दृष्टि है। व्यावहारिक दृष्टि और नैश्चयिक दृष्टि इन्द्रियातीत है, अतः सूक्ष्म 292 21 Jain Education International www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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