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________________ अनुयोगद्वार में नय के स्थान पर वचन और नय के साथ विधि शब्द का प्रयोग भी हुआ है-सयंगहवयणं....उज्जुसुओ नर्यावही। अनुयोग और नय अनुयोगद्वार में व्याख्या के चार द्वार प्रज्ञप्त हैं-उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय। निक्षिप्त पद का अनुगम के द्वारा अर्थबोध होने पर नय के द्वारा उसके विभिन्न पर्यायों का अर्थबोध किया जाता है। उपोदघात नियुक्ति अनुगम के 26 द्वारों में दसवां द्वार है-नय, जिसमें विविध नयों के अनुसार प्रतिपाद्य विषय का स्वरूप बताया जाता है। इस प्रकार अनुयोगद्वार सूत्र में नय चार अनुयोगद्वारों में स्वयं चौथा अनुयोगद्वार है और अनुगम का एक विभाग भी है। दृष्टिवाद में प्रत्येक विषय पर नयदृष्टि से विचार किया जाता था। अतः इस सूत्र में भी यथास्थान नयों का प्रयोग किया गया है। लगभग 80 सूत्रों में नैगम व्यवहार और संग्रहनय की वक्तव्यता के आधार पर आनूपूर्वी का स्वरूप समझाया गया है। प्रस्तुत आगम के अंत में सात नयों के निर्वचन लक्षण बताकर ज्ञाननय और क्रियानय का प्रतिपादन किया गया है। नय के निर्वचन और परिभाषा प्राचीन युग में या आगमयुग में किसी भी शब्द को परिभाषित करने की प्रवृत्ति प्रायः नहीं थी। सीधा भेद-प्रभेदों और दृष्टान्तों के माध्यम से विषय का सांगोपांग बोध करा दिया जाता था। नंदी, अनुयोगद्वार, ठाणं आदि के अनेक स्थल इसके साक्षी हैं। अनुयोगद्वार में भावप्रमाण के तीन भेद हैं-गुणप्रमाण, नयप्रमाण और संख्याप्रमाण। शिष्य ने पूछा-नय प्रमाण क्या है? आचार्य ने कहा-नयप्रमाण तीन दृष्टान्तों से प्रतिपादनीय है-प्रस्थक दृष्टान्त, वसति दृष्टान्त, प्रदेश दृष्टान्त। इन तीन दृष्टान्तों के माध्यम से सात नयों को भेद-प्रभेद सहित समझाया गया है। अनुयोगद्वार और आवश्यकनियुक्ति में सात नयों की परिभाषा श्लोकों में आबद्ध है। वाचक मुख्य उमास्वाति ने एकार्थक शब्दों और निर्वचनों के माध्यम से नय को परिभाषित किया है नयाः प्रापकाः कारकाः साधकाः निर्वर्तका निर्भासका-उपलम्भका व्यंज्जका इत्यनर्यान्तरम्। जीवादीन पदार्थान नयन्ति प्राप्नुवन्ति-कारयन्ति, साधयन्ति निवर्तयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति व्यज्जयन्ति इति नयाः। ज्ञेयस्य त्वर्थस्याध्यवसायान्तरान्यैतानि।।39 जो जीव आदि पदार्थों के प्रापक/ज्ञापक हैं, वे नय हैं। नय ज्ञेयपदार्थ के विषय में होने वाले विभिन्न अध्यवसाय हैं। जिनभद्रगणि ने अनेक कारकों से नय का निर्वचन किया है स नयइ तेण तहिं वा तओऽहवा वत्थुणो व जं नयणं। बहुहा पज्जायाणं संभवओ सो नओ नामा।।140 जो अनेक प्रकारों से संभावित पर्यायों से वस्तु का बोध कराता है, वह नय है। इस गाथा में प्रयुक्त तेण, तहिं और तओ-इन पदों को परिणामांतर, क्षेत्रान्तर और कालांतर का प्रतीक माना जा सकता पताना 289 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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