________________ जैन दृष्टि का समन्वयात्मक रूप जैन दर्शन अनेकान्तवादी होने के कारण उन सभी मतों को किसी अपेक्षा से सत्य मानता है जबकि अन्य दर्शन किसी एक मत को ही सत्य मानते हैं। सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद के विचार के बीच जैन यह कहकर समन्वय स्थापित करता है कि पर्याय की अपेक्षा कार्य कारण में पहले से नहीं रहता, किन्तु द्रव्य, गुण की अपेक्षा कार्य कारण में पहले से ही रहता है। जैसा कि आचार्य सिद्धसेन ने सन्मतितर्क में कारण और कार्य में भेदाभेद सिद्ध करते हुए लिखा है नत्थि पुढवीविसिट्ठो घडोत्ति, जं तेण जुज्जइ अणण्णो। जं पुण घडोति पुण्यं, ण आसि पुढवी तओ अण्णो।। अर्थात् मिट्टी द्रव्य है और घड़ा उसका एक पर्याय है। घड़ा मिट्टी से होता है, उसके बिना नहीं होता। इस अपेक्षा से घड़ा मिट्टी से अभिन्न है। मिट्टी में पहले से ही रहता है, किन्तु घटाकार परिणति से पूर्व मिट्टी में घट की क्रिया नहीं हो सकती, इस अपेक्षा से घट मिट्टी से भिन्न भी है, घट मिट्टी में पहले से नहीं रहता। जैन दर्शन अभेद द्रष्टि के द्वारा सत्कार्यवाद और भेददृष्टि के आधार पर असत्कार्यवाद-इन दो वस्तुवादी दृष्टियों का समन्वय करता है। द्रव्य की अपेक्षा से वह सांख्य के सत्कार्यवाद को मानता है और पर्याय की अपेक्षा से वह नैयायिक के असत्कार्यवाद को स्वीकार करता है। जैन इस दृष्टि में भी न्यायवैशेषिक और सांख्य के बीच समन्वय स्थापित करता है कि वह न्याय वैशेषिक के समान क्रिया को प्रायोगिक अर्थात् प्रयत्नजन्य भी मानता है और सांख्य के समान स्वाभाविक भी स्वीकार करता है। जहाँ तक वेदान्त और बौद्ध दृष्टि का सम्बन्ध है, जैन इन दोनों की दृष्टि को एकान्त मानता . है और यह मानता है कि पदार्थ ध्रुव भी है और परिणमनशील भी है। इसलिए जैन न तो वेदान्त की एकान्त नित्यता को स्वीकार कर सकता है और न बौद्ध की एकान्त परिणमनशीलता को स्वीकार कर सकता है। इसलिए उसका वेदान्त और बौद्ध से यह मौलिक भेद बना रहता है कि जहाँ वेदान्त और बौद्ध प्रत्ययवादी दर्शन है, वहाँ जैन वस्तुवादी दर्शन है। इसलिए पंडित सुखलालजी का कहना है कि "प्रकृति से अनेकान्तवादी होते हुए भी जैन दृष्टि का स्वरूप एकान्ततः वस्तुवादी ही है। तथापि जैन दृष्टि का नय सिद्धान्त इतना व्यापक है कि प्रत्ययवादी भी इसकी पकड़ से बाहर नहीं रहता। संग्रहनय की दृष्टि से परमार्थ का विश्लेषण करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं-"एक ऐसी भी स्थिति है, जहाँ प्रमाण, नयनिक्षेप आदि कुछ भी काम नहीं करते, वहाँ द्वैत भी प्रतीति में नहीं रहता। उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमणम्, क्वचिदपि च न विघ्नो याति निक्षेप चकम्। किमधिकमभिदध्मो धाम्नि सर्वऽगंकषेहास्मिन अनुभवमुपयाते माति न द्वैतमेव।।" इसी आधार पर आचार्य महाप्रज्ञ का कथन है-जैन दर्शन अनेकान्तवादी है। इसलिए वह केवल द्वैतवादी नहीं है। वह अद्वैतवादी भी है। उसकी दृष्टि में द्वैत और अद्वैत दोनों की संगति है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् के भगवती सूत्र में सोमिल द्वारा पूछे गए प्रश्नों के भगवान महावीर द्वारा दिये गए उत्तरों की सुन्दर ढंग से व्याख्या करते हुए अनेकान्त के सिद्धान्त की पुष्टि की है। अनेकान्तवाद की पुष्टि करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने महावीरस्तव ग्रंथ में बताया है कि "हे वीतराग! इस जगत् में त्रिगुणात्मक प्रधान प्रकृति में परस्पर विरोधी गुणों को स्वीकार करने वाले सांख्य, 269 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org