________________ अनेकान्तवाद एवं नय भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। इसका एक शुद्ध आधार स्तम्भ है-अनेकान्त। अनेकान्त हमारे विचारों की शुद्धि करता है। "मैं सोचता हूँ, वही सत्य है"-यह आग्रह व्यक्ति को सफलता से वंचित कर देता है। सफल वही होता है, जो हर विचार में छिपी अच्छाई को ग्रहण करता है, अपने चिंतन को ही सर्वेसर्वा न मानकर अन्य विचारों का भी सम्मान करता है। हम आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करें या आचारमीमांसीय दृष्टि से, राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में देखें या सामाजिक सन्दर्भो में अनेकान्त की उपादेयता सर्वत्र परिलक्षित होती है। अनेकान्त जैन दर्शन का हृदय है। समस्त जैन वाङ्मय अनेकान्त के आधार पर वर्णित है। उसके बिना जैनदर्शन को समझ पाना दुष्कर है। अनेकान्त दृष्टि एक ऐसी दृष्टि है, जो वस्तु तत्त्व को उसके समग्र स्वरूप के साथ प्रस्तुत करती है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु बहुआयामी है। उसमें परस्पर विरोधी अनेक गुणधर्म हैं। हम अपनी एकान्त दृष्टि से वस्तु का समग्र बोध नहीं कर सकते। वस्तु के समग्र बोध के लिए समग्र दृष्टि अपनाने की जरूरत है। वह अनेकान्त की दृष्टि अपनाने पर ही संभव है। अनेकान्त दर्शन बहुत व्यापक है। इसके बिना लोक व्यवहार भी नहीं चल सकता। समस्त व्यवहार और विचार इसी अनेकान्त की सुदृढ़ भूमि पर ही टिका है। अतः उसके स्वरूप को जान लेना भी जरूरी है। किसी भी बात को सर्वथा एकान्त से नहीं कहने का, और न ही स्वीकार करने का संलक्ष्य जैन दर्शन में मिलता है। इसी से जैनदर्शन को अनेकान्तवाद से आख्यायित किया गया है। स्याद्वाद स्वरूप से चरितार्थ बनाया है। - विचार और आचार-इन दोनों से दर्शन धर्म की सिद्धि कही गई है। ऐसे दर्शन धर्म में आचारों को नियमबद्ध नीति से पालने का आदेश मिलता है। विचारों की स्वाधीनता सर्वत्र सुमान्य कही गई है पर वह भी दार्शनिक तथ्यों से नियंत्रित पाई गई है। अनेकान्तदर्शन एक नियमबद्ध दार्शनिकता को दर्शित करता अनेकान्तता का आकार आयोजित करता है। एकान्त से किसी भी विचार को दुराग्रहपूर्ण व्यक्त करने का निषेध करता है पर सम्मान समादर भाव से संप्रेक्षण करता सत्यता का सहकारी हो जाता है। अनेकान्तवाद का अर्थ संसार की संरचना के मूल में तत्त्व का द्वैत है। आगम साहित्य में स्थान-स्थान पर इस द्वैतवादी मान्यता का उल्लेख है। 'स्थानांग सूत्र-1' में बतलाया गया है कि लोक में जो कुछ है, वह सब दो पदों में अवतरित है। ये पदार्थ परस्पर विरोधी होते हैं। विरोध अस्तित्व का सार्वभौम नियम है। विरोध के बिना अस्तित्व ही नहीं होता है। संसार में ऐसी कोई भी अस्तित्ववान वस्तु नहीं है, जिसमें विरोधी युगल एक साथ न रहते हों। वस्तु/द्रव्य में अनन्त धर्म होते हैं। यह कोई महत्त्वपूर्ण स्वीकृति नहीं है, किन्तु एक ही वस्तु में एक ही काल में अनन्त विरोधी धर्म युगपद् रहते हैं। यह जैनदर्शन अनेकान्त दर्शन का महत्त्वपूर्ण 2 . 252 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org