SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थात् दीपक से लेकर आकाश तक सभी पदार्थ नित्यात्मक हैं। कोई भी पदार्थ स्याद्वाद की इस मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता। तात्पर्य यह है कि जैन दर्शन के अनुसार जो सत् है, वह पूर्ण रूप से कूटस्थ नित्य, निश्चय विनाशी या उसका अमुक भाग नित्य और अमुक भाग अनित्य नहीं हो सकता। अतः आचार्य हेमचन्द्र प्रमाण का विषय द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु को बताते हुए लिखते हैं द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय है। जैनाचार्यों के समक्ष जब यह प्रश्न आया कि एक ही वस्तु में उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता जैसे परस्पर विरोधी गुणधर्म कैसे ठहर सकते हैं? तो समाधान में स्याद्वादी आचार्यों ने कहा घटमौली सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थिनिष्वयम्। शोक प्रमोदमाध्यस्यं जनो याति सहेतुकम्।। - एक स्वर्णकार स्वर्णकलश तोड़कर स्वर्णमुकुट बना रहा है। उसके पास तीन ग्राहक आये। एक को स्वर्ण कलश चाहिए था, दूसरे को स्वर्ण मुकुट और तीसरे को केवल स्वर्ण चाहिए था। स्वर्णकार की प्रवृत्ति को देखकर पहले को दुःख हुआ, दूसरे को हर्ष हुआ और तीसरा माध्यस्थ भावना में रहा। तात्पर्य यह हुआ कि एक ही स्वर्ण में, एक ही समय में एक विनाश देख रहा है, एक उद्धार देख रहा है और एक ध्रुवता देख रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से त्रिगुणात्मक है। जैन दर्शन वस्तु को न केवल द्रव्यरूप मानता और न केवल पर्यायरूप मानता है अपितु जात्यन्तर द्रव्यपर्यायरूप मानता है। जैसा कि कहा है भागे सिहो नरो भागे योऽर्थो भागद्रयात्मकः। तम भागेः विभागेन नरसिंह प्रचक्षते।। जिस प्रकार नृसिंहावतार एक भाग में नर है और दूसरे में मनुष्य है, वह नर और सिंह दो विरुद्ध आकृतियों को धारण करता है और फिर भी नृसिंह नाम से कहा जाता है, उसी तरह नित्य-अनित्य दो विरुद्ध धर्मों में रहने पर भी स्याद्वाद के सिद्धान्त न केवल द्रव्यरूप है और न केवल पर्यायरूप है अपितु द्रव्यपर्यायरूप है। प्रमिति-प्रमाण का फल दर्शन जगत् में प्रमाण और प्रमेय की भांति प्रमिति की चर्चा भी अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। जैन दर्शन आत्मवादी होने के कारण आत्मा को प्रमाता जानता है। ज्ञान आत्मा का गुण है और वह प्रमाण का साधकतम उपकरण है, इसलिए ज्ञान को प्रमाण मानता है। आज्ञा की निवृत्ति ज्ञान से होती है इसलिए ज्ञान को ही प्रमाण का फल मानता है अतः जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान ही प्रमाण एवं ज्ञान ही प्रमाण का फल है। प्रमाण के फल दो बताते हुए आचार्य हेमचन्द्र मीमांसा में लिखते हैं कि'फलमर्थ प्रकाशः150-प्रमाण का फल अर्थ का प्रकाश है। 'अज्ञाननिवृति -प्रमाण का फल अज्ञान की निवृत्ति है। 'अवग्रहादीनां वा कर्मोपजन धर्माणं पूर्वं पूर्वं प्रमाणमुतरमुतरू फलम्'15-क्रम से उत्पन्न होने वाले अवग्रह आदि में से पूर्व-पूर्व के प्रमाण और उत्तर-उत्तर के फल हैं। 'हानादिबुद्धयो वा'15-प्रमाण का फल हानि आदि बुद्धि है। 235 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy