________________ काल के परिपक्व होने पर बुद्ध स्वयं ही जान ले अथवा बोधितत्त्व का कोई दूसरा उपदेश देने वाला मिले, तब जाने। जैसे सोया हुआ व्यक्ति या तो स्वयं जागे या कोई जगाए तब जागे। आत्मा तो ज्ञानस्वरूप ही है, परन्तु ज्ञान मिथ्यास्वरूप भी हो सकता है और सम्यक्स्वरूप भी है। ज्ञान पूर्ण भी हो सकता है और अपूर्ण भी। आत्मा ज्ञान से अभिन्न है किन्तु ज्ञेय, ज्ञान तथा आत्मा दोनों से भिन्न है। उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानसार में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान-तीनों की अभिन्नता बताते हुए कहा है-आत्मा, आत्मा में ही शुद्ध आत्मा को आत्मा के द्वारा जानता है। आत्मान्मन्येव यच्छुद्रं ज्ञानात्यात्मानमात्मना। ___ यहाँ यह प्रश्न उठता है कि ज्ञेय आत्मा से भिन्न कैसे है? यहाँ पर ज्ञाता भी आत्मा है, ज्ञेय . भी आत्मा है और जब ज्ञान भी आत्मा का ही हो अर्थात् ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान-तीनों ही आत्मस्वरूप हैं तो वहाँ तीनों में अभेद सिद्ध होता है। तात्पर्य यह है कि जब आत्मा स्व को ही जाने, तब ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान-तीनों में अपृथकत्व है, किन्तु जब आत्मा पर को जाने, तब ज्ञेय पदार्थ, ज्ञाता और ज्ञान दोनों से भिन्न होगा। जैसे कुर्सी का ज्ञान आत्मा में ही होता है, किन्तु कुर्सी ज्ञानरूप नहीं है, वह भिन्न है, उसी प्रकार कर्म नो-कर्म आदि ज्ञेयों का प्रतिबिम्ब आत्मा में दिखाई देता है। किन्तु ये ज्ञाता तथा ज्ञान-दोनों से भिन्न हैं। जैसे दर्पण में अग्नि की ज्वाला दिखाई देती है, वहाँ यह ज्ञान होता है कि ज्वाला तो अग्नि में ही है, वह दर्पण में प्रविष्ट नहीं है और जो दर्पण में दिखाई दे रही है, वह दर्पण की स्वच्छता ही। है। उसी प्रकार कर्म तथा नोकर्म का प्रतिबिम्ब भी आत्मा की स्वच्छता के कारण उसमें प्रतिभासित होता . है। ज्ञेय का प्रतिबिम्ब आत्मा में होता है अतः उस अपेक्षा ज्ञेय भी आत्मा से अभिन्न है। उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानसार में कहा है शुद्धेऽपि व्योम्नि तिमिराद् देखाभिर्मिश्रमात यथा। विकारैर्मिश्रता भाति, तथाऽत्मन्य विवेक्तः।।90 जिस प्रकार तिमिर रोग होने से स्वच्छ आकाश में भी नील, पीत रेखाओं द्वारा मिश्रत्व भासित होता है, उसी प्रकार आत्मा में अविवेक के कारण विकारों द्वारा मिश्रत्व भासित होता है। आत्मा तो स्वभाव से ही शुद्ध है। इस प्रकार आत्मा का ज्ञायक स्वभाव है और पदार्थों का ज्ञेय स्वभाव है। पदार्थों में बदलाव हो, ऐसा उनका स्वभाव नहीं है और उनके स्वभाव में कुछ बदलाव करे, ऐसा ज्ञान का स्वभाव भी नहीं है। जिस प्रकार आँख नीम को नीमरूप से और गुड़ को गुड़रूप से देखती है किन्तु नीम को बदलकर गुड़ नहीं बनाती और गुड़ को बदलकर नीम नहीं बनाती और साथ ही वह नीम भी अपना स्वभाव छोड़कर गुड़रूप नहीं होता और गुड़ भी अपना स्वभाव छोड़कर नीम नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा का ज्ञानस्वभाव समस्त स्व-पर ज्ञेय को यथावत् जानता है, किन्तु उसमें कहीं कुछ भी फेर बदल नहीं करता और ज्ञेय भी अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य रूप नहीं होते। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में ही विद्यमान हैं। स्वतंत्र ज्ञेयों को यथावत् जानना ही सम्यग्ज्ञान है। 216 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org