SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान के भेद जैन आगमों तथा पूर्वाचार्य रचित ग्रंथों में ज्ञान के पांच भेद उपलब्ध होते हैं, जिसका सकल काल में स्थित सम्पूर्ण वस्तुओं के समूह को साक्षात् करने वाला केवलज्ञान की प्रज्ञा से तीर्थंकरों ने पांच ज्ञान का उपदेश दिया है तथा गणधर भगवंतों ने उन पांच ज्ञानों को सूत्र में निबद्ध किया हैं। आगम ग्रंथों आदि में ज्ञान के पांच भेद उल्लिखित हैंणाणं पंचविहं पण्णतं-तं जहा-आभिनिषीबोहियाण, सुयणाणं, ओहिणाणं, मणमज्जवणाण, केवलणाणं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान-ये पाँच प्रकार ज्ञान के हैं। / इसी प्रकार के भेद अभिधान राजेन्द्र कोष, उत्तराध्ययन सूत्र, नन्दीसूत्र," विशेषावश्यक भाष्य, तत्त्वार्थ सूत्र, धर्मसंग्रहणी, कर्मग्रंथ, ज्ञानबिन्द आदि सूत्रों में भी निर्दिष्ट है। आगम ग्रन्थ आदि में ज्ञान के पांच भेद देखने को मिलते हैं लेकिन उसके कारण नहीं मिलते, ये पाँच ही भेद क्यों? पांच ज्ञानों का विवेचन इस प्रकार मिलता है। . मतिज्ञान-आभिनिबोधिक ज्ञान द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्यमन के निमित्त से नियतरूप से रूपी और अरूपी द्रव्य को जानना आभिनिबोधि ज्ञान है। .. इन्द्रियों के क्षयोपशम से उत्पन्न शक्ति जहाँ तक पहुंचती है, ऐसे नियत स्थान में रहे हुए पदार्थों का जो ज्ञान है, वह आभिनिबोधिक ज्ञान है।" o आचार्यश्री मल्लिसेन सूरि रचित धर्मसंग्रहणी में आभिनिबोधिक ज्ञान अर्थात् अर्थाभिमुखे, नियते बोधोऽभिनिबोध एवाभिनिबोधिकम्। अर्थ के सम्मुख जो बोध, वह अभिनिबोध / इसी अभिनिबोध ज्ञान के आवश्यक कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न ज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं। इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है। जैन आगमों में इसके लिए आभिनिबोधिक ज्ञान शब्द का भी प्रयोग हुआ है। प्रतिनियत अर्थ को ग्रहण करने वाला अर्थाभिमुख ज्ञान आभिनिबोधिक है। यह उचित क्षेत्र में अवस्थित वस्तु को ग्रहण करने वाला स्पष्ट अवबोध है। इसे एक दृष्टान्त से समझा जा सकता है। रात्रि में मंद प्रकाश के कारण पुरुष प्रमाण स्थाणु को देखकर व्यक्ति सोचता है-यह पुरुष है अथवा स्थाणुवल्लियों से परिवेष्टित अथवा पक्षियों से अकीर्ण स्थाणु को देखकर उसे यह ज्ञात हो जाता है कि यह स्थाणु है। जो इस अभिमुख अर्थ के सामने दिखाई देने वाले पदार्थ को यथार्थ रूप में जानता है, वह आभिनिबोधिक ज्ञान है। उपाध्याय यशोविजय ने भी ज्ञानबिन्दु में मतिज्ञान का लक्षण बताते हुए कहा है कि-मतिज्ञानस्य लक्षणम् तत्र मतिज्ञानत्वं श्रुताननुसार्यनतिशयित ज्ञानत्वम् अवग्रहादि क्रम वदुपयोग जन्य ज्ञानत्व च। श्रुताश्रित न हो, ऐसा अतिशय रहित ज्ञान वह मतिज्ञान का लक्षण है। अथवा अवग्रह, ईहा आदि क्रमपूर्वक के उपयोग रूप ज्ञान वह मतिज्ञान है। 201 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy