________________ एक कोशकार ने तत्त्व की व्याख्या इस प्रकार की है-तत्त्व यानी ब्रह्म और वस्तु का यथार्थ स्वरूप।32 तत्त्व की शाब्दिक, व्यौत्पत्तिक, दार्शनिक, आगमिक परिभाषाओं के आधार पर तत्त्व की समग्रता मौलिक परिभाषा के रूप में यह कह सकते हैं कि जो यथार्थ है, सर्वथा निरापद है, वह तत्त्व है। सत् यही एकमेव तत्त्व है। दृश्यमान जगत् के मौलिक स्वरूप का अन्वेषण, जीव जगत् संबंधी समस्त समस्याओं की समन्विति ही तत्त्व है। तत्त्व के पर्यायवाची नाम/अभिवचन तत्त्व यानी परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, परमापरम, ध्येय, शुद्ध, परम-ये एकार्थवाची हैं। इसी तरह रियलिटी, फिनोमिना, एसेन्स, एलिमेंट, सबस्टेन्स तथा फेक्ट आदि शब्द पाश्चात्य दर्शन में तत्त्व शब्द के अभि अर्थ में दृष्टिगोचर होते हैं। तत्त्वदर्शन का क्षेत्र भारतीय दर्शन में तत्त्वदर्शन का क्षेत्र निरसीन माना गया है। सम्पूर्ण विश्व उसका विवेच्य विषय है। ब्रह्माण्ड के असंख्य पदार्थों की स्थिति एवं सत्ता की बाहरी एवं भीतरी सूक्ष्मताओं का अन्वेषण इसी पर आधारित है। आत्मा, अनात्मा, गति, स्थिति, समय, अवकाश, जीव, जगत्, मन, मस्तिष्क, मोक्ष आदि मूलभूत समस्याओं पर बौद्धिक चिंतन ही इसका क्षेत्र है। तत्त्व क्रम संख्या . तत्त्व संख्या के विषय में भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों में भिन्नता पाई जाती है। यद्यपि विश्व के समस्त दार्शनिकों का तत्त्व-चिंतन, तत्त्वसंख्या एवं तत्त्वक्रम संसार का मूल तत्त्व जो सत् है, उसी पर आधारित है। दार्शनिक चाहें आत्मवादी रहे हों या अनात्मवादी किन्तु उन्होंने मुख्य रूप से और गौण रूप से जड़ चेतन रूप युग्म को प्राधान्य दिया है। सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं किन्तु जिन पदार्थों में अस्तित्व को मान्यता मिली, उनका समावेश तत्त्व में किया गया। तत्त्वरूप में स्वीकृत पदार्थ में धर्म, गुण, लक्षण, क्रिया आदि को व्याख्यायित कर अनुसंधान के क्षेत्र में आगे बढ़े। तत्त्व का अन्वेषण पारमार्थिक, लौकिक एवं व्यावहारिक धरातल पर भी हुआ है। परिणामस्वरूप जीव जगत् ईश्वर, मोक्ष एवं नैतिक, आध्यात्मिक समस्याओं को तात्विक धरातल पर तार्किक, बौद्धिक प्रणाली से सुलझाने का जो प्रयत्न हुआ है, उसी को लेकर दार्शनिक जगत् में एक-तत्त्ववाद, दित्ववाद, बहुतत्ववाद, अद्वैतवाद आदि तत्त्ववादी परम्पराओं का उद्भव हुआ। जैन दर्शन में तत्त्व का मूल्य-मीमांसात्मक स्वरूप ___ लोकस्थिति का आधार तत्त्व है। तत्त्वों की समन्विति ही यह विश्व है। समग्र सत्ता दो रूपों में व्यक्त है-चेतन और अचेतन। विश्व संरचना और वैश्विक व्यवस्था में इन्हीं दो पदार्थों का सहयोग रहा है। ये दोनों स्वतंत्र सत्ता हैं। लोकाकाश के अंचल में विद्यमान दोनों तत्त्व-जीवतत्त्व एवं अजीवतत्त्व संख्या एवं शक्ति की दृष्टि से असीम एवं अनन्त शक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। एक अमिट मर्यादा-रेखा के परिपालन में दोनों तत्त्व संलग्न हैं। एक-दूसरे से पारस्परिक प्रभावित होने पर भी निश्चय-नय की अपेक्षा से अपने-अपने स्वभाव मैं परिणमन करते रहते हैं। फलतः स्वाधीन सत्ताधिष्ठित होने पर भी दोनों तत्त्व सापेक्ष उपकारी हैं। 180 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org