SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बन्ध चार प्रकार का है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबंध, प्रदेशबंध और रसबंध। जिस समय कर्म का बंध होता है, उस समय चारों ही प्रकार का बंध होता है।13 बंध का प्रकार बन्ध प्रकृतिबंध स्थितिबंध प्रदेशबंध रसबंध मोक्ष निर्वाण कृत्सनः कर्मक्षयोः। सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होना मोक्षतत्त्व कहलाता है। तत्त्वार्थ टीका में मोक्षतत्त्व की व्याख्या इस प्रकार मिलती है सकलकर्म विमुक्तस्य ज्ञानदर्शनोपयोग लक्षणस्यात्मन स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः। सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से ज्ञान-दर्शन के उपयोग से लक्षण वाले आत्मा का अपनी आत्मा में रहना, रमण करना ही मोक्ष कहलाता है। अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के क्षय हो जाने को मोक्ष कहते हैं। मोक्षतत्त्व के नव अनुयोगद्वार के नव भेद हैं-1. सत्पद प्ररूपणा, 2. द्रव्य प्रमाण, 3. क्षेत्रद्वार, 4. स्पर्शना, 5. कालद्वार, 6. अन्तरद्वार, 7. भागद्वार, 8. भावद्वार, 9. अल्पबहुत्वद्वार / " इस प्रकार नवतत्त्व की विचारणा नवतत्त्व, पंचास्तिकाय, उत्तराध्ययन सूत्र एवं टीका में विस्तारपूर्ण मिलती है। नवतत्त्व का इस प्रकार 2, 5 और 7 में भी समावेश हो जाता है। अन्य मत में तत्त्व विचारणा बौद्ध दर्शन में चार आर्यसत्यों को तत्त्वरूप में स्वीकार किये गये हैं, जिनका जीव और अजीव में अन्तर्भाव हो जाता है। नैयायिकों के मत प्रमाण आदि सोलह तत्त्व हैं-1. प्रमाण, 2. प्रमेय, 3. संशय, 4. प्रयोजन, 5. दृष्टान्त, 6. सिद्धान्त, 7. अवयव, 8. तर्क, 9. निर्णय, 10. वाद, 11. जल्प, 12. वितण्डा, 13. हेत्वाभास, 14. छल, 15. जाति, 16. निग्रहस्थान। कर्म पुण्य-पाप आत्मा के विशेष गुण रूप हैं। शरीर विषय, इन्द्रिय, बुद्धि, सुख-दुःख आदि का उच्छेद करके आत्मस्वरूप में स्थिति होना मुक्ति है। न्यायावसार में आत्यन्तिक दुःख निवृत्ति करके नित्य अनुभव में आने वाले सुख की प्राप्ति को भी मुक्ति माना है-1. प्रकृति, 2. बुद्धि, 3. अहंकार, 4. स्पर्शन, 5. रसन, 6. घ्राण, 7. चक्षु, 8. क्षेत्र, 9. मलस्थान, 10. सूत्रस्थान, 11. वचन के उच्चारण करने के स्थान, 12. हाथ और 13. पैर-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ, 14. मन, 15. रूप, 16. रस, 17. गन्ध, 18. स्पर्श और 19. शब्द-ये पाँच तन्यात्राएँ, इन पाँच भूतों की उत्पत्ति, 20. अग्नि, 21. जल, 22. पृथ्वी, 23. आकाश, 24. वायु। इस प्रकार सांख्य मत में चौबीस तत्त्व तथा प्रधान से भिन्न पुरुषत्व इस प्रकार 25 तत्त्व हैं। सांख्यमत में न तो प्रकृति कारण रूप है और न कार्यरूप है। अतः उसको न बन्ध होता है, न मोक्ष और न संसार। वैशेषिक मत में 5 तत्त्व माने गए हैं द्रव्यं गुणस्तथा कर्म सामान्यं च चतुर्थकम्। विशेषसमवायौ च तत्त्वषडकं तु तन्भते / / 175 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy