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________________ नवतत्त्व के भेद-प्रभेदों का वर्णन निम्नोक्त प्रकार से मिलता है जीव तत्त्व-जीव शब्द की व्युत्पत्ति, व्याख्या, लक्षण आदि जीवास्तिकाय में विस्तार से कह दिया है। अतः यहाँ केवल दिशा-निर्देश के लिए पुनःकथन किया जा रहा है। जो चेतनागुण से युक्त है तथा जो ज्ञानदर्शनरूप उपयोग को धारण करने वाला है, उसे जीव कहते हैं। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार लक्षण दिया है त्रिकालविषय जीवानुभावनाज्जीव अथवा चेतना स्वभाव त्वातदिकल्प लक्षणो जीवः / प्राण पर्याय के द्वारा तीनों काल के विषय का अनुभव करने से वह जीव कहलाता है अथवा जिसका . स्तर द्रव्यों से भिन्न एक विशिष्ट चेतना स्वभाव है तथा उसके विकल्प ज्ञान, दर्शन आदि गुण हैं और उसके सान्निध्य में से आत्मा द्रष्टा, कर्ता, भोक्ता होता है, उस लक्षण से युक्त वह जीव कहलाता है। चार्वाक मत वाले जीव को स्वतंत्र पदार्थ नहीं मानते। अतः वे उपरोक्त कथन से असहमत होकर इस प्रकार चर्चा करते हैं कि इस संसार में आत्मा नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। पृथ्वी, जल आदि का विलक्षण रासायनिक मिश्रण होने से शरीर में चेतना प्रकट हो जाती है। इन चैतन्य के कारणभूत शरीराकार भूतों को छोड़कर चैतन्य आदि विशेषणों वाला परलोकगमन करने वाला कोई भी आत्मा नहीं है। तत्त्वार्थ सूत्र में जीव तत्त्व के मुख्यताः दो भेद किये गए हैं-संसारिणो मुक्ताश्च, संसारी और . मुक्त। इस भेद का आधार कम है। जो जीव कर्म बंधन से युक्त है, वे संसारी हैं और जो कर्मरहित हो गये हैं, वे मुक्त हैं। कर्म बंधन के कारण जीव नाना योनियों में भ्रमण करते रहते हैं। ऐसे कर्मसहित जीव के पुनः दो भेद हो सकते हैं। संक्षिप्त में इनका विवरण इस प्रकार है जीव संसारी मुक्त मुक्त त्रस स्थावर बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय चउरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय पृथ्वी अप् तेउ वाउ वनस्पति देव मनुष्य तिर्यंच नरक अजीव तत्त्व-अजीव तत्त्व जीव का प्रतिपक्षी है। जहाँ जीव तत्त्व संचेतन होता है, वहाँ अजीव तत्त्व अचेतन है। जब तक जीव का इसमें साथ संबंध रहेगा, तब तक जीव मुक्त नहीं हो सकेगा। अजीव तत्त्व के साथ बंधे रहने के कारण ही जीव को संसार के परिभ्रमण करना पड़ता है। इसलिए साधना की दृष्टि से जीव की तरह अजीव को भी समझना जरूरी है। दशवैकालिक सूत्र में कहा है-जो जीव और अजीव को नहीं जानता, वह साधना के क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकता। अजीवतत्त्व के मुख्य पाँच भेद हैं, जो निम्न हैं 171 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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