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________________ * समुद्र है, जिसमें धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के अभाव के कारण कोई भी जड़ पदार्थ या जीव गति करने में और ठहरने में समर्थ नहीं है। आकाशास्तिकाय आकाशास्तिकाय के विषय में जैन दर्शन की एक अनुत्तर विचारणा संप्राप्त होती है। अन्य दर्शनकारों ने जिसे शून्य बताकर उपेक्षा की, वहीं तीर्थंकर प्रणीत आगमों में उसे उपकारी एवं अपवाहक कहकर सम्मानित किया गया है। आकाश द्रव्य का विवेचन प्राचीन, प्राच्य एवं पाश्चात्य अभिधारणाओं में छिट-पुट रूप में मिलता है। आकाश द्रव्य जैन दर्शन का मौलिक तत्त्व है। विश्व शब्द की विस्तृत व्याख्या में सभी वास्तविक द्रव्यों का समावेश हो जाता है। उनमें आकाश नामक तत्त्व प्राचीन काल से अब तक दर्शन जगत् एवं विज्ञान जगत् दोनों में बहुत ही रहस्यमय रहा है। सामान्य इन्द्रिय ज्ञान के आधार पर पदार्थों द्वारा किया जाने वाला स्थान का अवगाहन अनुभव किया जा सकता है। यही आकाश नामक तत्त्व के अस्तित्व का आधार बनता है। लोक प्रकाश में कहा है-आकाश द्रव्य असीम है, अमूर्त है, अखंड है, अनन्तप्रदेशी हे। लोक असंख्यात प्रदेशी है और अलोक अनन्तप्रदेशी है। सर्वत्र सामान्य सत्ता के साथ उपस्थित है। यह द्रव्य लोकालोकव्यापी ह17 अर्थात् लोक के बाहर भी इसका अस्तित्व है। आकाश का अवस्थान-आप पूछेगे-आकाश का अवस्थान कहाँ है? मैं कहता हूँ आकाश कहीं नहीं है और यह प्रतिप्रश्न ही पूर्व प्रश्न का उत्तर है, क्योंकि 'कहाँ है?' यह प्रश्न तभी पूछा जा सकता - है, जब पदार्थ कहीं हो और कहीं न हो। पर जो चीज सर्वत्र व्याप्त हो, उसके लिए यह प्रश्न कोई . . अर्थ नहीं रखता। आकाश समुचे लोक और अलोक में व्याप्त है। आकाश को नीला कहा जाता है पर यह साहित्य की भाषा है, आगम की नहीं। आगम की भाषा में आकाश अरूपी है, फिर वह नीला कैसे हो सकता है? हमें जो आकाश नीला दिखाई देता है, उसका कारण दूरी है। निकट जाने पर वह नीला नहीं रहता। दूसरी बात यह है कि दिखाई देने वाला वस्तुतः आकाश नहीं, अपितु परमाणु पिण्ड है। . अमूर्त द्रव्य इन्द्रिय ज्ञान का साक्षात् विषय नहीं बन सकता। उसकी स्वीकृति उसके लक्षण के आधार पर होती है। पदार्थों को आश्रय देने वाले द्रव्य के रूप में आकाशास्तिकाय को स्वीकार किया गया है। _ आकाश का लक्षण-सर्वप्रथम आकाश शब्द की व्याख्या जैनागमों में हमें इस प्रकार समुपलब्ध भगवती सूत्र की टीका मेंआ मर्यादया-अभिविधिना वा सर्वेऽर्थाः काशन्ते प्रकाशन्ते स्वस्वभावं लभन्ते यत्र तदाकाशम् / / 74 जहाँ पर सभी पदार्थ अपनी मर्यादा में रहकर अपने-अपने स्वभाव को प्राप्त करते हैं तथा प्रकाशित होते हैं, वह आकाश है। जीवाभिगम टीका में चारों ओर से सभी द्रव्य, यथा व्यवस्थित रूप से जिसमें प्रकाशित होते हैं, वह आकाश है। 154 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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