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________________ . आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगदृष्टि समुच्चय में परमात्मा और निर्वाण का एक ही स्वरूप बताते हुए कहा है कि विभिन्न नामों से कथित परमतत्त्व का वही लक्षण है, जो निर्वाण का है, अर्थात् वे एक ही हैं। यह सदाशिव है, सब समय कल्याणरूप परब्रह्म आत्मगुणों के परम विकास के कारण महाविशाल है। सिद्धात्मा अर्थात् विशुद्ध आत्मसिद्धि प्राप्त तथा एक जैसे शुद्ध सहजात्मस्वरूप में संस्थित, निराबाध, अर्थात् सब बाधाओं से रहित, निरामय अर्थात् देहातीत होने के कारण दैहिक रोगों से रहित तथा अत्यन्त विशुद्ध आत्मस्वरूप से अवस्थित होने के कारण राग-द्वेष-मोह-काम -क्रोधादि भावरोगों से रहित परमस्वरूप निष्क्रिया अर्थात् सब कर्मों का कर्म हेतुओं का निःशेष रूप में नाश हो जाने के कारण सर्वथा क्रिया रहित कृतकृत्य है। जन्म-मृत्यु अदि का वहाँ सर्वथा अभाव है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षपाहुड में परमात्मा का स्वरूप बताते हुए कहा है कि परमात्मा कर्मरूपी मल से रहित है। ये अतीन्द्रिय और अशरीरी हैं। नियमसार में कहा गया है कि परमात्मा आदि अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवल शक्तियुक्त परमात्मा है। परमात्मा त्रिकाल निरावरण, निरंजन तथा निज परमभाव को कभी नहीं छोड़ते हैं और संसारवृद्धि के कारण भूत-विभाव पुद्गलद्रव्य के संयोगजनित रागादि परभाव को ग्रहण नहीं करते हैं। निरंजन, सहजज्ञान, सहजदृष्टि, सहजचारित्र आदि स्वभाव धर्मा के आधार आधेय संबंधी विकल्पों से रहित सदा मुक्त हैं।। - आचार्य हरिभद्र सूरि ने अष्टक प्रकरण में कहा है कि परमात्मा का स्वरूप पूर्णतः स्वतंत्र औत्सुक्य अर्थात् आकांक्षारहित, प्रतिक्रिया रहित, निर्विघ्न, स्वाभाविक नित्य अर्थात् त्रैकालिक और भययुक्त है। इस प्रकार अलग-अलग ग्रंथों में विविध प्रकार से परमात्मा का स्वरूप बताया गया है। ज्ञानार्णव ग्रंथ में शुभचंद्राचार्य ने परमात्मा की पहचान देते हुए बताया है कि निर्लेप, निष्फल, शुद्ध, निष्पन्न, अत्यन्न निवृत्त और निर्विकल्पक शुद्धात्मा परमात्मा स्वरूप है। - इस प्रकार जैन दर्शन में प्रत्येक आत्मा को बीजरूप में परमात्मा माना गया है। उनका उद्घोष है, “अप्पा सो परमप्पा"। - जैन दर्शन ईश्वर को सृष्टि का कर्ता, उसका नियामक तथा संचालक नहीं मानते हैं, जैसे श्रीमद् भगवत गीता में ईश्वर का स्वरूप बताते हुए कहा गया है-भूत, भविष्यत और वर्तमान को जानने वाला सर्वज्ञ पुरातन सम्पूर्ण संसार का शासक और अणु से भी अणु अर्थात् सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर सम्पूर्ण कर्मफल का विधायक अर्थात् विचित्र रूप से विभाग करके सब प्राणियों से उनके कर्मों का फल देने वाला है तथा अचिन्त्य स्वरूप अर्थात् जिसका स्वरूप नियत और विद्यमान होते हुए भी किसी के द्वारा चिन्तन न किया जा सके जैसा है एवं सूर्य के समान वर्ण वाला और अज्ञानरूप मोहमय अंधकार से सर्वथा अतीत है, वह परमात्मा है। महाभारत में परमात्मा का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जो परम तेजस्वरूप है, जो पारस महान् तपस्वरूप है, जो परम महान् ब्रह्म है, जो सबका परम आश्रय है। प्रायः सभी दर्शनों में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारा गया है लेकिन उसके स्वरूप के विषय में सभी दर्शनों की मान्यता अलग-अलग है। जैन, बौद्ध और गीता की परम्पराओं में ईश्वर को उपास्य के रूप में स्वीकृत किया है। जैन परम्परा में उपास्य के रूप में अरिहन्त और सिद्ध को माना है। वे उपास्य अवश्य हैं किन्तु गीता के ईश्वर से भिन्न हैं क्योंकि गीता का ईश्वर सदैव ही उपास्य है, जबकि अरिहंत और सिद्ध उपासक के उपास्य बने हैं। सिद्ध केवल उपासना के आदर्श हैं और अरिहंत उपासना अर्थात् साधनामार्ग के उपदेशक हैं किन्तु साधक स्वयं उस मार्ग पर चलकर आत्मस्वरूप को 108 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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