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________________ अध्यात्म का तात्विक आधार-आत्मा आत्मा की अवधारणा एवं स्वरूप जैन धर्म विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक धर्म है। उसका चरम बिन्दु है-आत्मोपलब्धि या आत्मा की स्व-स्वरूप में उपस्थिति। अध्यात्मसार में उपाध्याय यशोविजय ने कहा है-“आत्मा को जानने के बाद कुछ जानने योग्य शेष नहीं रहता है परन्तु जिसने आत्मा को नहीं जाना, उसका दूसरा वस्तुगत ज्ञान निरर्थक है।"66 छान्दोग्योपनिषद् में कहा है कि "जो आत्मा को जानता है, वह सबको जानता है।"67 आचारांग सूत्र में भी कहा गया है कि "जो अध्यात्म अर्थात् आत्मस्वरूप को जानता है, वह बाह्य जगत् को जानता है।"68 क्योंकि बाह्य की अनुभूति भी आत्मगत ही है। इस संसार में जानने योग्य कोई तत्त्व है तो वह आत्मा ही है। आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है। एक बार आत्मतत्त्व में उसके स्वरूप में रुचि जगने के बाद फिर दूसरी वस्तुएँ तुच्छ लगती हैं। अन्य द्रव्यों का ज्ञान आत्मज्ञान को अधिक स्पष्ट और विशद करने के लिए हो सकता है किन्तु जिस व्यक्ति के आत्मज्ञान में ही रस नहीं है, उसका अन्य पदार्थों का ज्ञान अन्त में निरर्थक ही है। इसलिए आगे अध्यात्म के तात्विक आधार-आत्मा के स्वरूप का वर्णन है। __“जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है।" आत्मा और ज्ञान में एक दृष्टि से तादात्म्य है। आत्मा द्रव्य है, ज्ञान उसका गुण है। यशोविजय ने ज्ञानसार में कहा है, "मैं शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ और शुद्ध ज्ञान ही मेरा गुण है।" इच्छा से गुण भिन्न है या अभिन्न, इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए सूत्रकार कहते हैं कि ज्ञान आत्मा के बिना नहीं है। चूर्णिकार कहते हैं, "कोई भी आत्मा ज्ञान-विज्ञान से रहित नहीं है। जैसे जल शीतलता के गुण से रहित नहीं होता है। शीतलता जल से भिन्न पदार्थ नहीं है। इसलिए जल के कथन से शीतलता का कथन स्वयं हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा के कथन से विज्ञान अर्थात् चेतना का कथन स्वयं हो जाता है और विज्ञान या चेतना के कथन से आत्मा का कथन भी स्वयं हो जाता है। आत्मा एक या अनेक-आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से एक है और पदार्थ की अपेक्षा से अनेक है, क्योंकि आत्मा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है। आत्मा का अस्तित्व ध्रुव है। ज्ञान के परिणाम उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। जैसे सिन्धु का जल न एक है और न अनेक। वह जलराशि की दृष्टि से एक है और अलग-अलग जल-बिन्दुओं की दृष्टि से अनेक भी है। समस्त जलबिन्दु अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए उस जलराशि से अभिन्न ही हैं। इस प्रकार की प्रेरणा से ज्ञानगुण मनःपर्यव आदि अनेक पर्यायों की चेतना से युक्त होते हुए भी आत्मा से भिन्न है। जीव आत्मा का लक्षण-भगवतीसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र तथा तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि जीव का लक्षण उपयोग है। लक्षण द्वारा किसी भी वस्तु को अन्य वस्तुओं से अलग करके पहचाना जा सकता है, यही लक्षण की विशेषता है। उपयोग जीव का आत्मभूत लक्षण है। यह संसारी और सिद्ध दोनों ही दशाओं में रहता है। जीव का यह लक्षण त्रिकाल में भी बाधित नहीं हो सकता है। यह लक्षण असंभव, अव्याप्ति, अतिव्याप्ति आदि दोषों से रहित और पूर्णतः निर्दोष है। बोध, ज्ञान, चेतना और संवेदन-ये सभी उपयोग के पर्यायवाची शब्द हैं। 96 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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