________________ मिथ्या नय से प्रयुक्त कुशास्त्र के श्रवण, मनन आदि से उत्पन्न हुए कुविकल्प, आभिसंस्कारिक कुविकल्प कहलाते हैं। जैसे आत्मा क्षणिक है (बौद्ध), यह जगत् अण्डे से उत्पन्न हुआ है (पुराण), ईश्वर द्वारा रचाया है (न्याय-वैशेषिक दर्शन), ब्रह्मा द्वारा जगत् की रचना की गई है (भागवत दर्शन आदि), यह जगत् प्रकृति का विकार रूप है (वैभाषिक बौद्ध), यह ज्ञान मात्र स्वरूप है (योगाचार बौद्ध), शून्य स्वरूप है (माध्यमिक बौद्ध), जगत् की रचना एवं विषय में इस प्रकार की भ्रांतियाँ आभिसंस्कारिक कुविकल्प कहलाती हैं। गुण-दोषों की विचारणा से परामुख होना, सुख की आसक्ति और दुःख के द्वेष में तत्पर होना, कुचेष्टा, खराब वाणी और गलत विचार लाना आदि लक्षण सहज कुविकल्प कहलाते हैं। * जब सद्गुरु के समागम से, सुनय के श्रवण, मनन आदि से दुर्नय से उत्पन्न कदाग्रह दूर हो जाता है और उसी प्रकार सहज मल का हास, मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशम तथा भव्यत्व के परिपाक आदि के द्वारा सहज कुविकल्प का भी त्याग हो जाता है और भव-भ्रमण के परिश्रम को दूर करने के लिए विशुद्ध आत्मद्रव्य की ओर रुचि होती है तब स्याद्वाद से प्राप्त निर्मल बोध वाला जीव अध्यात्म का अधिकारी होता है। शास्त्रों में अपुनर्बंधक, सम्यक्दृष्टि, देशविरति और सर्वविरति-ये चार प्रकार के अध्यात्म के अधिकारी बताये गये हैं तथा चारों के लक्षण भी वर्णित किये गये हैं, जिससे सामान्य व्यक्ति भी अध्यात्म के अधिकारी और अनाधिकारी को पहचान सके। __ योगशतक में अपुनर्बंधक का लक्षण बताते हुए कहा गया है-जो आत्मा तीव्र भाव से पाप नहीं करती है, संसार को बहुमान नहीं देती है, सभी जगह उचित आचरण करती है, ये अपुनर्बंधक जीव 'अध्यात्म के अधिकारी हैं। यशोविजय ने सम्यक्त्व की 67 बोल की सज्झाय में शुश्रुशा (शास्त्र श्रवण की इच्छा), धर्मराग और वितरागदेव, पंच महाव्रत पालनहार गुरु की सेवा-यह तीन सम्यक् दृष्टि के लिंग बताये हैं और ऐसे सम्यक् दृष्टि जीव को अध्यात्म का अधिकारी बताया है। चारित्रवान् के लक्षण .. चारित्रवान् व्यक्ति मार्गानुसारी, श्रद्धावान्, प्रज्ञापनीय, क्रिया में तत्पर, गुणानुरागी और स्वयं की शक्ति अनुसार धर्मकार्य को करने वाला होता है। चारित्रवान् आत्मा, देशविरति और सर्वविरति के भेद से अनेक प्रकार की होती हैं और यह अध्यात्म के अधिकारी होते हैं। योगबिन्दु ग्रंथ में बताया गया है कि अध्यात्म से ज्ञानावरण आदि क्लिष्ट कर्मों का क्षय, वीर्योल्लास, शील और शाश्वत ज्ञान प्राप्त होता है। यह अध्यात्म ही अमृत है। अध्यात्म तत्वावलोक में न्यायविजय ने भी कहा है-समुद्र की यात्रा में द्वीप, मरुभूमि में वृक्ष, घोर अंधेरी रात में दीपक और भयंकर ठण्ड के समय अग्नि की तरह इस विकराल काल में दुर्लभ ऐसे अध्यात्म को कोई महान् भाग्यशाली मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है।" 88 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org