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________________ कथोपकथन की दृष्टि से यह कथा-ग्रन्थ बहत महत्त्वपूर्ण है। कथा का प्रस्तुतीकरण कथोपकथन के द्वारा ही हुआ है। शिक्षात्मक विवेचन, नैतिक मूल्यों आदि को प्रस्तुत करते समय कथोपकथन ने कथा में प्राण फूंक दिये हैं। कथा में प्रयुक्त पात्र ही कथा को सजीव एवं वस्तुस्थिति को स्पष्ट करने वाले होते हैं और पात्रों के द्वारा ही कथा का उद्देश्य आंका जा सकता है। षष्ठ अध्याय में भारतीय आर्य भाषाओं के क्रम में प्राकृत,संस्कृत, मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश एवम् आगे जाकर राजस्थानी आदि क्षेत्रीय भाषाओं का विकासक्रम प्रस्तुत किया गया है। ज्ञातासूत्र की प्रस्तुति मूलत: समास शैली, वर्णन शैली, मनोवैज्ञानिक शैली, कथोपकथन शैली आदि के रूप में है। यह भाषाशास्त्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही इस तरह के प्रयोम हमें प्राप्त होने लग जाते हैं जो भाषा की सहजता को इंगित करते हैं। सन्धि, समास, क्रिया, कृदन्त, अव्यय, देशी शब्द, तद्धित् आदि शब्दों के उदाहरण के साथ इस अध्याय को कलेवर देने का प्रयास किय गया है। सप्तम अध्याय का शीर्षक सांस्कृतिक अध्ययन है। इसमें सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से सम्बन्धित विभिन्न तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है यथा- सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के विवेचन में ऐतिहासिक एवं पौराणिक पुरुषों एवं नारियों की जानकारी; भौगोलिक वर्णन में नगर, नदियाँ, वन, द्वीप आदि का विवेचन; सामाजिक जीवन में वर्ण, जाति, पारिवारिक एवं सामाजिक रीति-रिवाजों, प्रथाओं, विश्वास, कला एवं विज्ञान को दृष्टिगत रखते हुए प्रसाधन एवं वस्त्राभूषणों का प्रसङ्गोपात वर्णन किया गया है। . इसमें राज्य व्यवस्था के अन्तर्गत राजा, मन्त्रीपरिषद्, राजपुत्र, पुरोहित, राजा का उत्तरदायित्व, शासन व्यवस्था, कर व्यवस्था आदि के वैशिष्ट को दर्शाया गया है। अर्थोपार्जन के साधन, वाणिज्य, उद्योग, व्यापार, बाजार व्यवस्था आदि का भी इसमें वर्णन है। वास्तुकला, शिल्पकला, अषि, मषि, कृषि, वाणिज्य के साथ-साथ पुरुषों की बहत्तर एवं स्त्रियों की चौसठ कलाओं का उल्लेख इसमें प्राप्त होता है। धार्मिक जीवन में श्रमण एवं श्रावक धर्म, इनके व्रत, नियम, धार्मिक विश्वास आदि के बारे में इस कृति के आधार पर प्रकाश डाला गया है। - अष्टम अध्याय- यह "उपसंहार" शीर्षक से युक्त है। इसमें उपर्युक्त सातों अध्यायों को उपसंहारात्मक रूप में प्रस्तुत करते हुए शोध-प्रबन्ध की उपादेयता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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