________________ ज्ञाताधर्मकथांग की विषयवस्तु परन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति शुक्ल पक्ष के चन्द्र की तरह है वह कान्ति, प्रभा, सौम्यता, क्षमा, दया, करुणा, तप, संयम आदि के भावों से युक्त निरन्तर पूर्णता को प्राप्त करता है। यदि वह इनको धारण करता है तो वह दूज के चाँद से लेकर क्रमश: पूर्णिमा के चाँद की तरह पूर्ण बनकर समग्र कलाओं से इस आभामण्डल को मण्डित करता है। यह चन्द्र अध्ययन आध्यात्मिक गुणों के विकास की यात्रा का विवेचन करता है तथा यह बताता है कि आध्यात्मिक गुणों के विकास के लिए चन्द्रमा की भाँति सद्गुरु का समागम करना चाहिए जिससे चारित्र की वृद्धि हो सके। 11. दावद्रव ग्यारहवें अध्ययन में कथाकार ने कथा न प्रस्तुत करके दृष्टान्त शैली के माध्यम से आराधक और विराधक के गुणों का विवेचन किया है। दावद्रव नामक एक वृक्ष है जो कृष्ण वर्ण का है उसके पत्ते, फल आदि अत्यन्त रमणीय हैं। यह समुद्र के किनारे होता है। यह वृक्ष पत्ते, फल आदि से रहित होकर भी खड़ा रहता है। वह वायु के प्रचण्ड वेगों को भी सहन करता है फिर भी उसका कुछ नहीं बिगड़ता है। इसी तरह जो व्यक्ति सम्यक् प्रकार से गुणों की आराधना करते हैं वे उपसर्गों में भी स्थिर रहते हैं, परन्तु जो किंचित् भी व्रत के विराधक होते हैं वे किसी भी प्रकार से स्थिर नहीं रह सकते हैं। 12. उदक - बारहवें अध्ययन में बताया गया है कि ज्ञानी पुरुष की दृष्टि तलस्पर्शी होती है, वह वस्तु के बाह्य एवं आन्तरिक दोनों ही दृष्टियों पर विचार करता है। चम्पानगरी में जितशत्र नामक राजा राज्य करता था। वह जिनमत का जानकार * नहीं था। उसके मंत्री का नाम सुबुद्धि था जो जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। .. एक बार जितशत्र नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ भोजन कर रहा था, उस भोजन की जितशत्रु ने बहुत प्रशंसा की। उसके साथ-साथ अन्य सार्थवाहों ने भी प्रशंसा की, परन्तु मंत्री सुबुद्धि बिल्कुल चुप रहा। राजा के दो-तीन बार पूछने पर उसने जवाब दिया कि पुद्गलों के परिणमन अनेक प्रकार के होते हैं कभी अशुभ पुद्गल शुभ एवं कभी शुभ पुद्गल अशुभ रूप में परिणमित होते हैं। अत: इस स्वादिष्ट भोजन में विस्मय एवं प्रशंसा रूप कुछ भी नहीं है। राजा को यह बात बुरी तो लगी पर वक्त के हिसाब से चुप रहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org