SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथांग की विषयवस्तु 55 कथा में प्रतीकात्मक अभिव्यंजना है। संसार में पापियों की कोई कमी नहीं। शृगाल दो थे इसलिए दो ही पापियों का उल्लेख किया गया है। कछुए के शरीर की बनावट ऐसी होती है कि उसकी पीठ पर बन्दूक की गोली भी लग जाए तो भी कुछ नहीं होता। दूसरी बात यह भी है कि कछुए शरीर को सुरक्षित रखने में अत्यन्त निपुण होते हैं। दोनों ने निपुणता दिखलायी भी। ___कथाकार ने निपुण व्यक्ति को भी कभी-कभी त्रुटि करते हुए देखा होगा इसलिए उसने एक कछुए को इस तरह प्रस्तुत किया कि वह सर्वस्व समाप्त हो गया और दूसरे की इस तरह प्रस्तुत किया कि उससे जीवन की वास्तविकता का बोध होता है। जो व्यक्ति पूर्णता को चाहता है वह संयत होता है और जो व्यक्ति पूर्णता को जानकर उसकी उपेक्षा करता है वह असंयत होता है। जो साधक या व्यक्ति नियम लेकर इन्द्रिय निग्रह करते हैं वे संयत कछुए की तरह अपने जीवन को सुरक्षित करते हैं और जो इन्द्रियों के प्रति उदासीन रहते हैं वे जीवन को नष्ट कर देते हैं। संयत रहना जीवन का मंगलकार्य है और असंयत रहना संसार का कारण है। 5. शैलक .. पंचम अध्ययन में थावच्चापुत्र, शुक परिव्राजक एवं शैलक मुनि का वर्णन है। द्वारका नामक नगरी थी। उस नगरी में थावच्चा नामक एक सम्पन्न महिला रहती थी। उसके थावच्चापुत्र नाम का इकलौता पुत्र था। एक समय. द्वारका नगरी में तीर्थंकर अरिष्टनेमि का आगमन हुआ। थावच्चापत्र भी भगवान के दर्शनार्थ वहाँ पहंचा। वहाँ धर्म को सुनकर उसके हृदय में वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ। माता ने बहुत समझाया किन्तु उसके न मानने पर माता ने उसे दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति प्रदान कर दी। द्वारका नगरी के राजा वासुदेव कृष्ण थे। जब थावच्चापुत्र की माता श्री कृष्ण से अपने पुत्र की दीक्षा हेतु उसके लिए छत्र, मुकुट और चामर लेने के लिए जाती है तो स्वयं कृष्ण उसकी दीक्षा सत्कार करने को कहते हैं। परन्तु वे थावच्चापुत्र की परीक्षा हेतु उसके घर पर जाते हैं। थावच्चापुत्र परीक्षा में सफल होता है। भगवान् अरिष्टनेमि की अनुमति प्राप्त कर थावच्चापुत्र एक हजार अणगारों के साथ चारित्र मार्ग की ओर अग्रसर होता है। ... शैलकपुर नामक नगर में शैलक नाम का राजा था। उसकी रानी कलावती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy