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________________ 49 ज्ञाताधर्मकथांग की विषयवस्तु अधिकांश कथाएँ शिक्षाप्रद, नीतिपरक, पर्यावरण सुरक्षा एवं प्राणी जगत की रक्षा से सम्बन्धित हैं। इस आगम के प्रारम्भ में मंगलाचरण नहीं है। कथाकार ने 'पठमं अज्झयणं उक्खित्तणाएं' ऐसा शीर्षक देकर ही समय, काल, चम्पानगरी, उसकी सीमा, वैभव, शासक आदि का सांकेतिक निरुपण करने के पश्चात् भगवान महावीर के प्रथम शिष्य सुधर्मास्वामी के विषय में - उनकी जाति, कुल, रूप, विनय, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों का सांगोपांग निरूपण किया है। आर्य सुधर्मा सम्बन्धी विवेचन मात्र उनके गणों की प्रशंसा से सम्बन्धित नहीं हैं अपित् कथाकार उनके जीवन्त स्वरूप को आगे की कथानकों में भी उपस्थित करना चाहता है ऐसा परिलक्षित होता है। कथानक के मूल में राजा की जिज्ञासा है कि जम्बूस्वामी किस प्रकार के हैं? इस प्रश्न के उत्तर को इस रूप में व्यक्त किया गया है कि आर्य सुधर्मास्वामी साधक की भूमिका पर विचरण करते हुए संयम और तप की पराकाष्ठा की ओर अग्रसर होना चाहते हैं। उनकी तपोसाधना का परिणाम जम्बूस्वामी के रूप में उपस्थित होता है। वे आर्य सधर्मा के ज्येष्ठ शिष्य थे जो काश्यप गोत्रीय थे। उनके गोत्र, संस्थान, संहनन, वर्ण, तप, गुण, संस्कार, ध्यान आदि के पश्चात् कथाकार स्वयं यह कथन करता हैं कि छठे अंग के दो श्रुतस्कन्ध कहे गये हैं (1) ज्ञाता और (2) धर्मकथा। ज्ञाता या ज्ञात अध्ययनों का उल्लेख निम्न है- 1: उत्क्षिप्त ज्ञात, 2. संघाट, 3. अंडक, 4. कूर्म, 5. शैलक, 6. रोहिणी, ... 7. मल्ली, 8. माकन्दी, 9. चन्द, 10. दावद्रववृक्ष, 11. तुम्ब, 12. उदक, 13. मंडूक, 14. तेतलीपुत्र, 15. नन्दीफल, 16. अमरकंका (द्रौपदी), 17. आकीर्ण, 18. सुंसुमा और 19. पुण्डरीक-कुण्डरीक। 1. उत्क्षिप्तज्ञात : यह अध्ययन राजा श्रेणिक से सम्बन्धित है। राजगह नगर में राजा श्रेणिक राज्य करता था, उसका सम्पूर्ण वैभव महाहिमवन्त पर्वत के समान फैला हुआ था। उसकी दो रानियाँ थीं- नन्दा और धारिणी। नन्दा से अभयकुमार का जन्म होता है जो अतिशय बुद्धिशाली था। साम, दाम, दण्ड, भेद आदि की नीति में निपुण तथा औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी एवं पारिणामिकी बुद्धि में प्रवीण था। . राजा श्रेणिक की द्वितीय रानी धारिणी देवी थी जो अत्यन्त रूपवान, कमनीय, प्रियदर्शना एवं चौसठ कलाओं से परिपूर्ण थी। वह रात्रि में स्वप्न दर्शन करती है। प्रात: उठते ही राजा श्रेणिक के पास जाकर निवेदन करती है कि हे राजन! मैंने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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