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________________ प्राकृत कथा साहित्य का उद्भव एवं विकास 39 नहीं। कथानकों की विविधता एवं शिल्प और रूप की दृष्टि के साथ अभिनव प्रयोग इस युग की विशेषता थी। कथा या. आख्यायिकाओं में धर्मकथा और प्रबन्ध काव्य के गुणों का समावेश भी इस युग में प्रारम्भ हो चुका था। इस युग में अलंकृत भाषा शैली, श्लेषमय समास पदावली, प्रसंगानुकूल कर्कश शब्दों का व्यवहार, दीर्घकाय वाक्य एवं अनूठी कल्पनाओं का प्रचलन अधिक था। ___ इस युग की प्रमुख कथाएँ समराइच्चकहा और धूर्ताख्यान के साथ-साथ टीकाओं और चूर्णियों में भी प्राप्त होती हैं। हरिभद्र ने मूलरूप से 125 ग्रन्थों की रचना की है। जिनमें कथाओं के रूप में समराइच्चकहा और धूर्ताख्यान बहुत ही प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। इनकी कथाओं में धर्म, दर्शन आदि के चित्रण के साथ लोक व्यवहार का स्वरूप भी प्राप्त होता है। समराइच्चकहा की आधारभूत प्रवृत्ति प्रतिशोध की भावना है जिसमें सदाचारी नायक और दुराचारी प्रतिनायक के जीवन संघर्ष की घटनायें कई जन्मों तक चलती हैं। धूर्ताख्यान एक व्यंग्य प्रधान रचना है जिसमें पुराणों में वर्णित असम्भव और अविश्वसनीय बातों का प्रत्याख्यान पाँच धूर्तों की कथाओं द्वारा किया गया है। भारतीय कथा साहित्य में इस लाक्षणिक शैली का प्रयोग अन्यत्र शायद ही प्राप्त हो। इस प्रकार नवीन शैली में कथाओं के माध्यम से हरिभद्र ने असम्भव, मिथ्या और अकल्पनीय निन्दय आचरण की ओर ले जाने वाली बातों का निराकरण कर स्वस्थ, सदाचारी और सम्भव आख्यानों का निरुपण किया है। . हरिभद्र उत्तरयुगीन प्राकृत कथा साहित्य . हरिभद्र के बाद कथा साहित्य अपनी पूर्ण क्षमता के साथ विकसित होकर एक समद्ध और पूर्ण साहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। इस युग में प्राकृत कथाएँ चार श्रेणियों में लिखी गयीं। 1. उपदेशात्मक कथा साहित्य। " 2. आख्यायिका कथा साहित्य- कथा के पश्चात् उपदेश प्रदान करनेवाला साहित्य। 3. धार्मिक उपन्यास- प्रेम कथा को अन्य कथा के जाल में बाँधकर नायक-नायिका - का मिलन, सुखमय जीवन और अन्त में उनका जैन धर्म में प्रवेश कराना। 4. चारित्रात्मक कथा साहित्य- महापुरुषों की जीवन गाथाओं की ऐतिहासिक और काल्पनिक रंग में उपस्थित करना। इस युग में मूलत: उद्योतनसरि की कुवलयमालाकहा, शीलंकाचार्य का चउपन-महापुरुष- चरित्र, धनेश्वरसूरि का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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