________________ प्रकाशकीय जैन आगम मूलत: प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं किन्तु प्राकृत एक भाषा न होकर भाषा समूह है। प्राकृत के इन अनेक भाषिक रूपों का उल्लेख हेमचन्द्र प्रभृति प्राकृत-व्याकरणविदों ने किया है। प्राकृत के जो विभिन्न भाषिक रूप उपलब्ध हैं उन्हें निम्न भाषिक वर्गों में विभक्त किया जाता है- मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, जैन-शौरसेनी, महाराष्ट्री, जैन-महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड़, चूलिका, ढक्की आदि। इन विभिन्न प्राकृतों से ही आगे चलकर अपभ्रंश के विविध रूपों का विकास हुआ और जिनसे कालान्तर में असमियाँ, बंगला, उड़िया, भोजपुरी या पूर्वी हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि भारतीय भाषाएँ अस्तित्व में आयीं। अत: प्राकृत सभी भारतीय भाषाओं की पूर्वज है और आधुनिक हिन्दी का विकास भी इन्हीं के आधार पर हुआ। - अर्द्धमागधी आगम साहित्य की विषयवस्तु मुख्यत: उपदेशपरक, आचारपरक एवं कथापरक है। विषय प्रतिपादन सरल, सहज और सामान्य व्यक्ति के लिए बोधगम्य है। ज्ञाताधर्मकथा जैन कथा साहित्य का प्रथम सोपान है जिसका साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन लेखिका ने प्रस्तुत पुस्तक में समावेशित करने का सफल प्रयास किया है, अत: वे धन्यवाद की पात्रा हैं। अल्पावधि में प्रस्तुत पुस्तक को सम्पादित कर मूर्त रूप प्रदान करने का श्रेय संस्थान के प्रवक्ता डॉ. विजय कुमार को जाता है, उनको मेरा साधुवाद। साथ ही सुन्दर अक्षर-सज्जा के लिए सरिता कम्प्यूटर्स और स्वच्छ मुद्रण हेतु वर्द्धमान मुद्रणालय को भी मेरा धन्यवाद है। 6/1/2003 प्रो० सागरमल जैन वाराणसी . मंत्री Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org