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________________ प्रथम अध्याय प्राकृत आगम परम्परा एवं ज्ञाताधर्मकथांग भारतीय सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण बनाये रखने का श्रेय श्रमण परम्परा के साहित्य को भी जाता है। मानवीय आस्था के मूल्यों से समावेशित इसके सिद्धान्तों में वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी, परमदर्शी, समत्वयोगी एवं आप्त-वचनों के अर्थ समाहित हैं। सूत्रकर्ता ने अनादि एवं अनन्त कही जाने वाली शब्द-रचना से गम्फित अधिकांश आगम सूत्रशैली में निबद्ध है। इसमें जो कुछ भी प्रतिपादित किया गया वह विरोधरहित, सापेक्षदृष्टि व अनेकान्त की गरिमा से मण्डित है तथा स्याद्वाद की शैली पर आधारित पूर्वापर पक्षपात से रहित है। परिवर्तित क्षेत्र-काल आदि भी इसके भावों को किसी भी तरह से प्रभावित नहीं कर पाये हैं। फलत: जो पूर्व परम्परा से चली आ रही थी उसे ही आचार्यों ने ज्यों का त्यों रख दिया। इसीलिए पूर्व परम्परा से आगत मूल सिद्धान्त को आगम कहा गया है। . सूत्रशैली में निबद्ध आगमों में सूत्रों के माध्यम से गम्भीर एवं समीचीन अर्थ को थोड़े शब्दों में रखा गया है। बुद्धि की अल्पता के कारण सूत्रबद्ध शब्द-सापेक्ष को समझ पाना कठिन है। अतः सूत्रकारों की दृष्टि को सर्वज्ञ की वाणी मानकर ही व्याख्याकारों ने सूत्र में अनन्त की दृष्टि को समाहित किया है जिससे वादी-प्रतिवादी सभी को आगम के रहस्य का ज्ञान हो सके ऐसा प्रयत्न किया गया है। इसके मूल में सर्वत्र तत्त्वचिन्तन है। इसमें जो कुछ भी कहा गया वह तर्कसंगत, प्रामाणिक और श्रुततीर्थ से समन्वित है। आगम आप्तवचन का अक्षय और अनादि विपुल भण्डार है। आगम पुण्य, पवित्र, शिव, शान्त एवं अनन्तगुणों का मुख्य द्वार भी है। इसके अक्षरों, शब्दों, वाक्यों आदि में अतिचार भी नहीं है। यह द्रव्यशुद्धि, भावशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि और कार्यशुद्धि से संयुक्त है। इसका परम पावन पवित्र स्वरूप समस्त जीवों का उपकार करनेवाला भी है। - विश्व के प्रत्येक धर्म के अपने-अपने पवित्र धार्मिक ग्रन्थ हैं जिनमें उनके आदि . पुरुषों, ऋषियों एवं तत्त्ववेत्ताओं के द्वारा प्रतिपादित धार्मिक-सिद्धान्त, आदर्श एवं उपदेश लिपिबद्ध हैं। वैदिक परम्परा में 'वेद', बौद्ध परम्परा में 'त्रिपिटक', ईसाई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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