________________ 108 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन के सूर्य के प्रकाश के लिए लाल अशोक की कांति, पलाश के पुष्प, तोते की चोंच, चिरमी के अर्द्धभाग, दुपहरी के पुष्प, कबूतर के पैर, कोयल के नेत्र, जासोद के फूल, जाज्वल्यमान अग्नि, स्वर्णकलश तथा हिंगलू के समूह की लालिमा से भी अधिक लालिमा। जिसकी श्री सुशोभित हो रही है ऐसा सूर्य क्रमश: उदित हुआ है। इसमें उत्प्रेक्षा अलंकार के माध्यम से लोक प्रचलित अनुभवों को आधार बनाकर सूर्य के अरुणोदय को व्यक्त किया गया है। करतलाहते विव तेंदूसए......ठाणभट्ठा आसकिसोरी णिगुंजमाणीविव गुरुजणादिट्ठावराहा सुयण कुलकन्नगा घुम्ममाणीविव वीची पहार-सत-तालिया गलिय लंबणाविव,२ असिपत्ते इ वा जावं मुम्मुरे इ वा, 3 पाएहि सीसे पोट्टे कायंसि इत्यादि लोकोत्तियाँ पात्र की वस्तुस्थिति के चित्रण में सहायक है। सूक्तियाँ ___ ज्ञाताधर्म में सूक्ति वचनों का सर्वत्र प्रयोग हुआ है। जिनसे वस्तु-स्वभाव, जीवन और जगत के स्वरूप का भी बोध होता है। कथाकार ने कथन की पुष्टि हेतु संयम आचरण प्रतिपादन, मनुष्य व्यवहार एवं दशा, प्रकृति-चित्रण आदि में नीति विशेष का जो प्रयोग किया है वह कथा के हृदय को सरस बनाने में सफल रहा है। यही नहीं कथाकार ने इस कथा ग्रन्थ में धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक आदि विषयों के औचित्य को दर्शाने के लिए जो पद-विन्यास किए हैं उनमें भी सूक्तियों का प्रयोग हुआ है। सूक्तियों का वर्गीकरण भी किया जा सकता है परन्तु यहाँ विस्तार भय से कुछ उदाहरण देकर ही सूक्तियों के सार को दर्शाया जा रहा है। यथा- 'सच्चे णं एसमढे जं णं तुब्भे वयह'५ अर्थात् आपका कहना सत्य है, असत्य नहीं। 'अजियाई जिणाहि इंदियाई 6 अर्थात् तुम नहीं जीती हुई पाँचों इन्द्रियों को जीतो। 'कुमुदेइ वा पंके जाए जले संवडिढए'७ अर्थात् कुमुद कीचड़ में उत्पन्न होता है और जल में वृद्धि पाता है। ‘जीवा वड्ढेति वा हायंति वा'८ जीव बढ़ते हैं और हानि को भी प्राप्त होते हैं। उक्त कई प्रकार की सूक्तियाँ है। ज्ञाताधर्मकथा में दृष्टान्त प्रधान सूक्तियों की प्रधानता है। यथा- 'बहुनेहावगाढं बिलमिव पन्नगभूएणं'।९ सर्प सीधा ही बिल में प्रवेश करता है। 'अहो णं इमे फरिहोदए अमणुण्णे'१° ऐसा अमनोज्ञ सर्प का मृतक 1. ज्ञाताधर्मकथांग, 1/28. 2. वही, 9/10. 3. वही, 16/46. 4. वही, 1/161. 5. वही, 1/24. 6. वही, 1/114. 7. वही, 1/56. 8. वही, 10/4. . 9. वही, 16/15. 10. वही, 12/11. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org