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________________ साहित्य भी कथा, कहानियों का अच्छा भण्डार है। ये टीकायें संस्कृत में होने पर भी इनका कथा भाग प्राकृत में भी निबद्ध है। प्राकृत भाषा की इन रचनाओं को हर्मन याकोबी जैसे विद्वानों ने महाराष्ट्री प्राकृत. नाम दिया है। डॉ. जगदीश चन्द्र जैन ने अपने 'प्राकृत साहित्य का इतिहास' (पृ. ३२०) में ठीक ही लिखा किया है - अल्प बुद्धिवाले लोग संस्कृत नहीं समझते, इसलिये सुखबोध प्राकृतकाव्य की रचना की जाती है, तथा गूढ़ और देशी शब्दों से रहित, सुललित पदों से गुंफित और रम्य ऐसा प्राकृत-काव्य किसके हृदय को आनन्द नहीं देता ? (महेश्वरसूरि कृत ज्ञानपंचमीकथा) धर्मोपदेशमालाविवरण में महाराष्ट्री भाषा की कामिनी और अटवी के साथ तुलना करते हुए उसे सुललित पदों से सम्पन्न, कामोत्पादक तथा सुन्दर वर्णो से शोभित बताया है। प्राकृत के कथा ग्रन्थों में संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं का भी यथेष्ट उपयोग किया गया है। अनेक स्थलों पर बीच-बीच में सूक्तियों अथवा अपभ्रंश को लिया गया है। देशी भाषा के अनेक महत्त्वपूर्ण शब्द इस साहित्य में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं जो भाषाविज्ञान की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है। प्राकृत कथाओं के रचयिता प्रायः प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं पर समान पांडित्य रखते थे। ईसवी सन् की नौंवी-दसवीं शताब्दी के पूर्व जैन आचार्यों के लिखे हुए प्राकृत कथा-ग्रन्थों की संख्या बहुत कम थी। लेकिन ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में विद्वानों में एक अभूतपूर्व जागृति उत्पन्न हुई, जिसके फलस्वरूप दो-तीन सौ वर्षों के भीतर सैकड़ों अभिनव कथा-ग्रन्थों का निर्माण हुआ। ङ) प्रमुख कथा ग्रन्थ आचार्य पादलिप्त सूरि (दूसरी शती) कृत तरंगवई कहा (तरंगवती कथा) अनुपलब्ध होने से, इसी कथा ग्रन्थ को संक्षिप्त रूप में नेमिचन्द्र गणि ने लगभग एक हजार वर्ष बाद तरंगलोला नाम से एक कथा ग्रन्थ ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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