SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारह - अंगग्गिज्झा वियलिय-मल- - मूढ - दंसणुत्तिलया। विविह- वर-चरण - भूसा पसियउ सुय देवया सुइरं ॥ ६ ॥ • षट्खण्डागम धवला टीका १/१/२ जो श्रुतज्ञान के प्रसिद्ध बारह अंगों से ग्रहण करने योग्य है, अर्थात् बारह अंगों का समूह ही जिसका शरीर है, जो सर्व प्रकार के मल (अतिचार) और तीन मूढताओं से रहित सम्यग्दर्शन - रूपं उन्नत तिलक में विराजमान है और नाना प्रकार के निर्मल चारित्र ही जिसके आभूषण हैं, ऐसी भगवती श्रुतदेवता चिरकाल तक प्रसन्न रहो । ५. महाराष्ट्री प्राकृत 'सामान्य प्राकृत' भाषा के रूप में महाराष्ट्री प्राकृत स्वीकृत मानी जाती है। किन्तु महाराष्ट्री इस नामकरण का मूल कारण महाराष्ट्र में इसकी उत्पत्ति स्थान ही है। मराठी भाषा का विकास भी इसी प्राकृत से हुआ। महाराष्ट्र में जो प्राचीन प्राकृत प्रचलित थी, उसे लीलावई - कहा के कर्ता कोऊहल ने मरहट्ट को देशी भाषा कहा है। इससे स्पष्ट है कि मरहट्ट देशी भाषा से ही प्राकृत काव्यों और नाटकों में प्रयुक्त महाराष्ट्री प्राकृत का विकास हुआ होगा। इसमें संस्कृत वर्णों लोप की प्रवृत्ति सबसे अधिक है। इसके वर्ण अधिक कोमल ललित और मधुर हैं। इसलिए काव्यों में इसे सर्वाधिक स्थान मिला है। ईसा की प्रथम शताब्दी से वर्तमान काल तक इसी प्राकृत में काव्य साहित्य का प्रणयन होता आ रहा है । इस भाषा का कथा और काव्य साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है। महाकवि दण्डी (ईसा की छठी शती) ने अपने काव्यादर्श नामक अलंकार शास्त्र में लिखा है - महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ।। ७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy