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________________ प्राकृत भाषाओं के भेद-प्रभेद लोकभाषा भरतमुनि (नाट्य शास्त्र १७, २६ एवं ४८) के समय ईसा की तीसरी शताब्दी में स्वतन्त्र भाषा के रूप में परिणत हो चुकी थी। लोकभाषा प्रादेशिक भिन्नताओं के कारण किंचित् भिन्न रूपों में भी प्रयुक्त होती थी जिसे देशभाषा भी कहा जाता था। यही कारण है कि वैदिक संस्कृत और प्राकृत में सन्धि के नियम शिथिल हैं, किन्तु संस्कृत में शिथिल नहीं हैं। स्वर-परिवर्तन के विविध रूप तथा भत्तिस्वरयोग भी संस्कृत में प्रचुरता से लक्षित होता है। प्राकृत की सामान्य प्रकृति ओकारान्त है जो अवेस्ता में भी दिखलाई पड़ती है। वेदकालीन जनबोलियों से लेकर ब्रज और बुन्देली तक लोकभाषाओं में स्पष्ट रूप से ओकारान्त प्रवृत्ति लक्षित होती है। अतः इनमें कोई सन्देह नहीं है कि भाषाशास्त्रियों के अनुसार वेदों के रचना-काल में और उससे पूर्व भी एक प्रवाह के रूप में जनबोली या बोलियों को 'प्राकृत' कहा जाता रहा है। . आचार्य नरेन्द्रनाथ ने 'प्राकृत भाषाओं का रूपदर्शन' नामक पुस्तक की विस्तृत भूमिका में लिखा है कि प्राकृत प्रकाश के कर्ता आचार्य वररुचि ने, जिनका दूसरा नाम कात्यायन भी था, प्राकृत भाषाओं का “प्राकृत प्रकाश' नामक प्रामाणिक व्याकरण लिखा। वररूची ने इन प्राकृत भाषाओं के चार भेद माने हैं - १. प्राकृत (महाराष्ट्री), २. मागधी, ३. शौरसेनी और ४. पैशाची। यहां प्राकृत से तात्पर्य वह भाषा जो शूरसेन, मगध तथा पिशाच प्रान्त को छोड़कर सामान्य रूप से सम्पूर्ण देश में बोली जाती थी। इस सामान्य प्राकृत को माहाराष्ट्री या महाराष्ट्री प्राकृत भी कहते हैं। महाकवि दण्डी को काव्यादर्श में कहा भी है – 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः'। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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