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________________ संस्कृत और प्राकृत भाषा यद्यपि यह निर्विवाद सत्य है कि सम्पूर्ण भारत ही क्या पूरे विश्व में देवभाषा संस्कृत के प्रति जो सम्मान है और अपने देश के सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास में संस्कृत की जो अमिट छाप और जो महत्व है, वह मूल्यों की दृष्टि से आज और अधिक बढ़ गया है, उसे सभी स्वीकार करते हैं। शब्द सम्पदा आदि विविध रूपों में विभिन्न भारतीय एवं विदेशी भाषाओं के लिए उसका जो व्यापक अवदान एवं प्रभाव है, वह भी किसी से छिपा नहीं है। किन्तु क्षेत्र और काल विशेष के प्रभाव से यह निश्चित है कि संस्कृत भाषा एक होने पर भी वाल्मीकि की भाषा से कालिदास और उनकी भाषा से बाणभट्ट की भाषा-शैली शब्द चयन, संरचना में अन्तर है। इसी से प्रकट है कि भाषा में विकास होना ही उसका जीवन है। जब तक भाषा अपने जीवन-काल में रहती है और जितने अधिक समय तक रहती है, उसमें उतना अधिक परिवर्तन होता रहता है। यहाँ तक कि उसका परवर्ती रूप कभी-कभी अपने मूल से इतना अधिक विकसित हो जाता है कि सहसा वह पहयान में भी नही आता। हमारे देश की दो प्राचीनतम भाषायें - संस्कृत और प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के विषय में डॉ. मोतीलाल ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य' (पृ. ४) में लिखा है कि - ‘मध्य एशिया को छोड़कर जिस समय हमारे पूर्वज प्राचीन आर्य पंजाब में आकर बसे थे और उस समय की जो जनभाषा बोलते थे, उसके एक रूप से वैदिक-संस्कृत की भी उत्पत्ति हुई, इसी वैदिक संस्कृत का ही परिवर्तित रूप पीछे से संस्कृत (लौकिक संस्कृत) कहलाया और जनसाधारण की बोलचाल की भाषायें प्राकृत के नाम से प्रसिद्ध हुई। ___डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने अपने प्राकृत साहित्य का इतिहास नामक ग्रन्थ (पृ. ८-९) में लिखा है- संस्कृत परिमार्जित और परिष्कृत २४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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