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सम्राट अशोक ने भी प्राकृत को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया और अपनी सभी आज्ञाओं और धर्मलेख इसी प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखवाए। प्राकृत भाषा को जनभाषा के साथ-साथ राजकाज की भाषा का भी गौरव प्राप्त हुआ और उसकी यह प्रतिष्ठा सैकड़ों वर्षों तक आगे बढ़ती रही। अशोक के शिलालेखों के अतिरिक्त देश के अन्य अनेक नरेशों ने भी प्राकृत में शिलालेख लिखवाये एवं मुद्राएँ अंकित करवाईं।
कलिंग नरेश महाराजा खारवेल द्वारा उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर के समीप उदयगिरि-खण्डगिरि की हाथीगुम्फा में प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण अभिलेख भी काफी महत्त्वपूर्ण है, जिसमें अपने देश "भरध-वस" (भारतवर्ष) के नाम का सर्वप्रथम प्राचीनतम उल्लेख प्राप्त होता है।
- महाकवि हाल ने अपनी गाथासप्तशती में तत्कालीन प्राकृत काव्यों से सात सौ गाथाएँ चुनकर प्राकृत को ग्रामीण जीवन, सौन्दर्य-चेतना एवं रसानुभूति की प्रतिनिधि सहज-सरस और सरल भाषा बना दिया। हिन्दी के महाकवि बिहारी जैसे अनेक प्रसिद्ध महाकवियों ने इन्हीं के अनुकरण पर अपने काव्यों की रचना की।
... संस्कृत नाटककारों में भास, कालिदास, शूद्रक, भवभूति, हस्तिमल्ल जैसे अनेक संस्कृत नाटककारों ने भी अपने नाटकों में अधिकांश सम्वाद प्राकृत भाषा में लिखकर प्राकृत को बहुमान प्रदान किया है। . __ लोकभाषा से अध्यात्म, सदाचार और नैतिक मूल्यों की भाषा तक का विकास करते हुए यह प्राकृत भाषा कवियों को आकर्षित करने लगी थी। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में प्राकृत भाषा गाँवों की झोपड़ियों से राजमहलों की सभाओं तक आदर प्राप्त करने लगी थी। वह समाज में अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम चुन ली गयी थी।
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