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अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दम ।
अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥ १२७॥
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• स्वयं (अपने आप अर्थात् आत्मा) पर ही विजय आप प्राप्त करना चाहिए। अपने आप पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है। क्योंकि आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है।
अण थोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च । न हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हु तं बहु होई ॥१३४॥ ऋण (कर्ज) को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक (थोड़ी) और कषाय को अल्प मान इन पर विश्वस्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। क्योंकि ये सब थोड़े होते हुए भी बढ़कर बहुत हो जाते हैं।
सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउं ।
तम्हा पाणवहं धोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ १४८ ॥
- सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिए (प्रत्येक जीव के) प्राणवध को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन (त्याग) करते हैं।
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जागरह नरा ! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी । जो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो ॥ १६८ ॥
हे मनुष्यो ! सतत जागृत रहों। जो जागता है उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है वह धन्य नहीं है, धन्य वह है, जो सदा जागता है। ग) वज्जालग्ग से
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दुक्खं कीरइ कव्वं कव्वम्मि कए पउंजणा दुक्खं । संते पउंजमाणे सोयारा दुल्लहा हुंति ॥ ६ ॥
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काव्य-रचना कष्ट से होती है, (काव्य-रचना ) हो जाने पर
उसे सुनाना कष्टप्रभ होता है और जब सुनाया जाता है, तब सुनने वाले
भी कठिनाई से मिलते हैं।
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