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________________ क) अपभ्रंश उद्भव और विकास अपभ्रंश मूलतः सिन्धु प्रदेश से लेकर बंगाल तक की जनबोली थी। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषा की विकृति या विच्युति (गिरने) का आशय उसके विकास से है। भरत मुनि ने जिस उकार बहुला भाषा का उल्लेख किया है और जो हिमाचल से सिन्ध तथा पंजाब तक बोली जाती थी, वह उकार बहुला और कोई भाषा नहीं अपितु वह अपभ्रंश ही है। भरत मुनि ने लिखा है - हिमवत्सिन्धु सौवीरान् ये जनाः समुपाश्रिताः। उकार बहुला तज्ज्ञस्तेषु भाषां प्रयोजयेत्॥नाट्यशास्त्र ६/६२॥ इससे स्पष्ट है ।के भरत मुनि के समय अपभ्रंश बोलचाल की भाषा थी। पहले प्राकृत को भी अपभ्रंश कहा जाता था - प्राकृतमेवापभ्रंशः। संस्कृतेतर भाषायें भी अपभ्रंश कहलाती थी। कालान्तर में प्राकृत साहित्य की भाषा हो गई और वे रूढ हो गयीं। उनका सम्बन्ध धीरे-धीरे जनबोली से दूर होता गया। प्राकृतों की इसी परम्परा में जनबोली का विकास होता रहा और उस विकसित अवस्था को अपभ्रंश कहा गया। अर्थात् जनभाषा के रूप में प्रचलित इन्हीं प्राकृतों में से एक अन्य भाषा का जन्म हुआ, विद्वानों ने जिसका “अपभ्रंश" नाम दिया। विक्रम की ७वीं शताब्दी से लेकर ११वीं शताब्दी तक अपभ्रंश की प्रधानता रही और बाद में वह पुरानी हिन्दी में परिणत हो गयी। (अपभ्रंश भाषा और व्याकरण, पृ. २७) ____ वस्तुतः भाषायें कभी विकृत नहीं होतीं, अपितु उनमें देश-काल के अनुसार परिवर्तन होता रहता है, जो कि उनके विकास की ही सूचक है। वैसे भी विकार, विकास और परिवर्तन का सूचक है। जैसे दूध का दही रूप में परिवर्तन, दूध के विकास में ही परिचायक है। तभी तो हमें मक्खन की प्राप्ति सम्भव होगी। भाषा के सम्बन्ध में भी यही कहा जा सकता है कि किसी भी भाषा का गतिहीन होना उसकी अस्वाभाविकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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