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58 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
उसे संयमभ्रष्ट होना पड़ता है। प्रस्तुत प्रकरण में मकान के प्रकार, मकानमालिकों के व्यवसाय, उनके आभूषण, उनके अभ्यंग के साधन, उनके स्नान सम्बन्धी द्रव्य आदि का उल्लेख है। इससे प्राचीन समय के मकानों व सामाजिक व्यवसायों का कुछ परिचय मिल सकता है।
ईर्यापथ :- ईर्यापथ नामक तृतीय अध्ययन में भिक्षुओं के पाद-विहार, नौकारोहण, जल प्रवेश आदि का निरूपण किया गया है। ईर्यापथ शब्द बौद्ध -परम्परा में भी प्रचलित है। तदनुसार स्थान, गमन, निषद्या और शयन इन चार का ईर्यापथ में समावेश होता है। विनयपिटक में एतद्विषयक विस्तृत विवेचन है। विहार करते समय बौद्ध भिक्षु अपनी परम्परा के नियमों के अनुसार तैयार होकर चलता है इसी का नाम ईर्यापथ है। दूसरे शब्दों में अपने समस्त उपकरण सार्थे में लेकर सावधानीपूर्वक गमन करने, शरीर के अवयव न हिलाने, हाथ न उछालने, पैर न पछाड़ने का नाम ईर्यापथ है। जैन परम्पराभिमत ईर्यापथ के नियमों के अनुसार भिक्षु को वर्षाऋतु में प्रवास नहीं करना चाहिए। जहाँ स्वाध्याय, शौच आदि के लिए उपयुक्त स्थान न हो, संयम की साधना के लिए यथेष्ट उपकरण सुलभ न हों, अन्य श्रमण, ब्राह्मण, याचक आदि बड़ी संख्या में आये हुए हों अथवा आने वाले हों वहाँ भिक्षु को वर्षावास नहीं करना चाहिए। वर्षाऋतु बीत जाने पर व हेमन्त ऋतु आने पर मार्ग निर्दोष हो गये हों- जीवयुक्त न रहे हों तो भिक्षु को विहार कर देना चाहिए। चलते हुए पैर के नीचे कोई जीव जन्तु मालूम पड़े तो पैर को ऊँचा रखकर चलना चाहिए, संकुचित कर चलना चाहिए, टेढ़ा रखकर चलना चाहिए, किसी भी तरह चलकर उस जीव की रक्षा करनी चाहिए। विवेकपूर्वक नीची नजर रखकर सामने चार हाथ भूमि देखते हुए चलना चाहिए। वैदिक परम्परा व बौद्ध परम्परा के भिक्षुओं के लिए भी प्रवास करते समय इसी प्रकार से चलने की प्रक्रिया का विधान है। मार्ग में चोरों के विविध स्थान, म्लेच्छों-बर्बर, शबर, पुलिंद, भील आदि के निवासस्थान आवें तो भिक्षु को
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