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सम्पादकीय
प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ या शास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान होता है, क्योंकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और आचार व्यवस्था दोनों के लिए " शास्त्र" ही एक मात्र प्रमाण होता है। हिन्दू धर्म में वेद का, बौद्ध धर्म में त्रिपिटक का, पारसी धर्म में अवेस्ता का, ईसाई धर्म में बाइबिल का और ईस्लाम धर्म में कुरान का जो स्थान है, वही स्थान जैन धर्म में आगम साहित्य का है फिर भी आगम साहित्य को न तो वेद के समान अपौरूषेय माना गया है और न बाइबिल या कुरान के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश ही, अपितु वह उन अर्हतों व ऋषियों की वाणी का संकलन है, जिन्होंने अपनी तपस्या और साधना द्वारा सत्य का प्रकाश प्राप्त किया था। जैनों के लिए आगम जिनवाणी है, आप्तवचन है, उनके धर्म-दर्शन और साधना का आधार है। यद्यपि वर्तमान में जैन धर्म का दिगम्बर सम्प्रदाय उपलब्ध अर्धमागधी आगमों को प्रमाणभूत नहीं मानता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में इन आगमों में कुछ ऐसा प्रक्षिप्त अंश है, जो उनकी मान्यताओं के विपरीत है। हमारी दृष्टि में चाहे वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हो या उनमें कुछ परिवर्तन, परिवर्धन भी हुआ हों, फिर भी वे जैनधर्म के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध ा हैं। उनकी पूर्णतः अस्वीकृति का अर्थ अपनी प्रामाणिकता को ही नकारना है। श्वेताम्बर मान्य इन अर्धमागधी आगमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये ई. पू. पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवी शती अर्थात् लगभग एक हजार वर्ष में जैन संघ के चढ़ाव उतार की एक प्रामाणिक कहानी कह देते हैं।
अर्धमागधी आगमों का वर्गीकरण
वर्तमान में जो आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं उन्हें निम्न रूप से वर्गीकृत किया जाता
11 अंग
1. आयार (आचारांग) 2. सूयगड (सूत्रकृतांग), 3. ठाण (स्थानांग ), 4. समवाय (समवायांग), 5. वियाहपन्नत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती ), 6. नायाधम्मकहाओ (ज्ञाता-धर्मकथा), 7. उवासगदसाओ ( उपासकदशा), 8. अंतगडदसाओ ( अन्तकृद्दशा), 9. अनुत्तरोववाइयदसाओ (अनुत्तरौपपातिकदशा) 10. पण्हवागरणाई ( प्रश्नव्याकरणानि), 11. विवागसुयं (विपाक श्रुतम् ) 12. दृष्टिवाद जो विच्छिन्न हुआ है।
12 उपांग
,
1. उववाइय (औपपातिक), 2. रायपसेणइज (रायप्रसेनजित्क) अथवा रायपसेणिय (राजप्रश्नीय), 3. जीवाजीवाभिगम, 4. पण्णवणा (प्रज्ञापना), 5. सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्ति),
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