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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 39 आचारांग में आने वाले "एयावंति" व "सव्वावंति'' इन दो शब्दों का चूर्णिकार ने कोई स्पष्टीकरण नहीं किया है। वृत्तिकार शीलांकसूरि इनकी व्याख्या करते हुए कहते हैं : एतौ द्वौ शब्दो मागधदेशीभाषाप्रसिद्धया, "एतावन्त सर्वेऽपि इत्येतत्पर्यायौ' (आचारांगवृत्ति, पृ. 25) अर्थात् ये दो शब्द मगध की देशी भाषा में प्रसिद्ध हैं एवं इनका "इतने सारे'' ऐसा अर्थ है। प्राकृत व्याकरण को ऐसी प्रक्रिया द्वारा "एतावन्तः" के अर्थ में "एयावंति'' सिद्ध नहीं किया जा सकता और न "सर्वेऽपि" के अर्थ में "सव्वावंति" ही साधा जा सकता है। वृत्तिकार ने परम्परा के अनुसार अर्थ समझाने की पद्धति का आश्रय लिया प्रतीत होता है : बृहदारण्यक उपनिषद् में (तृतीय ब्राह्मण में) "लोकस्य सर्वावतः" अर्थात् "सारे लोक की' ऐसा प्रयोग आता है। यहाँ "सर्वावन्तः" "सर्वावत्" का षष्ठी विभक्ति का रूप है। इसका प्रथमा का बहुवचन "सर्वावन्तः" हो सकता है। आचारांग के सव्वावंति और उपनिषद् के "सर्वावतः" इन दोनों प्रयोगों की तुलना की जा सकती है। आचारांग में एक जगह "अकस्मात्" शब्द का प्रयोग मिलता है : आठवें अध्ययन में जहाँ अनेक वादों - लोक है, लोक नहीं है इत्यादि का निर्देश है वहाँ इन सब वादों को निर्हेतुक बताने के लिए "अकस्मात्" शब्द का प्रयोग किया गया है। सम्पूर्ण आचारांग में, यहाँ तक कि समस्त अंगसाहित्य में अत्यव्यञ्जनयुक्त ऐसा विजातीत प्रयोग अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। वृत्तिकार ने इस शब्द का स्पष्टीकरण भी पूर्ववत् मगध की देशी भाषा के रूप में ही किया है। वे कहते है : "अकस्मात् इति मागधदेशे आगोपालाङ्गनादिना संस्कृतस्यैव उच्चारणाद् इहापि तथैव उच्चारितः इति" (आचारांगवृत्तिः पृ. 242) अर्थात् मगध देश में ग्वालिने भी "अकस्मात्'' का प्रयोग करती हैं। अतः यहाँ भी इस शब्द का वैसा ही प्रयोग हुआ है। ... मुण्डकोपनिषद् के (प्रथम मुण्डक, द्वितीय खण्ड, श्लोक 9) “यत धर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागात् तेन आतुराः क्षीणलोकाश्चवन्ते'' इस पद्य में जिस अर्थ में "आतुर" शब्द है उसी अर्थ में आचारांग का आउर - आतुर शब्द भी है। लोकभाषा में "कामातुर" का प्रयोग इसी प्रकार का है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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