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12 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
के कारण कांपता है तो उसकी शंका को दूर करना चाहिए – उसे शंका से मुक्त करना चाहिए - उसका शंकारूप जो मोह है उसे दूर करना चाहिए । आगे के उद्देशकों में उपकरण एवं शरीर के विमोक्ष अथवा विमोह के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है जिसका सार यह है कि यदि ऐसी शरीरिक परिस्थिति उत्पन्न हो जाय कि संयम की रक्षा न हो सके अथवा स्त्री आदि के अनुकूल अथवा प्रतिकूल उपसर्ग होने पर संयम - भंग की स्थिति पैदा हो जाय तो विवेकपूर्वक जीवन का मोह छोड़ देना चाहिए अर्थात् शरीर आदि से आत्मा का विमोक्ष करना चाहिए। . .
नवें अध्ययन का नाम उवहाणसूय-उपधानश्रुत है। इसमें भगवान् महावीर की गंभीर ध्यानमय व धीरतपोमय साधना का वर्णन है। उपवन शब्द तप के पर्याय के रूप में जैन प्रवचन में प्रसिद्ध है इसीलिए इसका नाम उपधानश्रुत रखा गया मालूम होता है। नियुक्तिकार ने इस अध्ययन के नाम के लिए "उवहाणसुय" शब्द का प्रयोग किया है। इसके चार उद्देशक में दीक्षा लेने के बाद भगवान को जो कुछ सहन करना पड़ा उसका वर्णन है। उन्होंने सर्वप्रकार की हिंसा का त्याग कर अंहिसामय चर्या स्वीकार की । वे हेमन्त ऋतु में अर्थात् कड़कड़ाती ठंडी में घरबार छोड़ कर निकल पड़े एवं कठोर प्रतिज्ञा की कि "इस वस्त्र से शरीर को ढकूँगा नहीं, इत्यादि। द्वितीय एवं तृतीय उद्देशक में भगवान् ने कैसे-कैसे स्थानों में निवास किया एवं वहाँ उन्हें कैसे-कैसे परीषह सहन करने पड़े, यह बताया गया है। चतुर्थ उद्देशक में बताया है कि भगवान् ने किस प्रकार तपश्चर्या की, भिक्षाचर्या में क्या-क्या व कैसा शुष्क भोजन लिया, कितने समय तक पानी पिया व न पिया, इत्यादि। पहले "आचार" के जो पर्यायवाची शब्द बताये हैं उनमें एक "आइण्ण" शब्द भी है। आइण्ण का अर्थ है आचीर्ण अर्थात् आचरित। आचारांग में जिस प्रकार की चर्या का वर्णन किया गया है, वैसी ही चर्या का जिसने आचरण किया है उसका इस अध्ययन में वर्णन है। इसी को दृष्टि में रखते हुए सम्पूर्ण आचारांग का एक नाम "आइण्ण' भी रखा गया है।
आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययनों के सब मिलाकर 51 उद्देशक हैं। इनमें से सातवें अध्ययन महापरिज्ञा के सातों उद्देशकों का लोप हो जाने के कारण
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