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10 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
नियुक्तिकार के कथनानुसार पाँचवे अध्ययन के दो नाम हैं- आवंति व लोकसार। अध्ययन के प्रारम्भ, मध्य एवं अन्त में आवंति शब्द का प्रयोग हुआ है अतः इसे आवंति नाम दे सकते हैं। इसमें जो कुछ निरूपण है वह समग्रलोक का साररूप है अतः इसे लोकसार भी कहा जा सकता है। अध्ययन के प्रारम्भ में ही "लोक" शब्द का प्रयोग किया गया है। अन्यत्र भी अनेक बार "लोक' शब्द का प्रयोग हुआ है। समग्र अध्ययन में कहीं भी "सार" शब्द का प्रयोग दृष्टिगोचर नहीं होता। अध्ययन के अन्त में शब्दातीत एवं बुद्धि व तर्क से अगम्य आत्मतत्व का निरूपण है। यही निरूपण साररूप है, यों समझकर इसका नाम लोकसार रखा गया हो, यह संभव है। इसके छ: उद्देशक हैं। नियुक्तिकार ने इनका जो विषयक्रम बताया है वह आज भी इसी रूप में उपलब्ध है। इनमें सामान्य श्रमणचर्या का प्रतिपादन है।
छठे अध्याय का नाम धूत है। अध्ययन के आरम्भ में ही "अग्घाइ से धूयं नाणं" इस वाक्य में धूय -धूत शब्द का उल्लेख है। आगे भी "धूयवायं पवेस्सामि" यों कह कर धूतवाद का निर्देश किया है। इसप्रकार प्रस्तुत अध्ययन का धूत नाम सार्थक है। हमारी भाषा में "अवधूत" शब्द का जो अर्थ प्रचलित है वही अर्थ प्रस्तुत धूत शब्द का भी है। इस अध्ययन के पाँच उद्देशक हैं। इसमें तृष्णा को झटकने का उपदेश है। आत्मा में जो सयण याने सदन, शयन या स्वजन, उपकरण, शरीर, रस, वैभव, सत्कार आदि की तृष्णा विद्यमान है उसे झटक कर साफ कर देना चाहिए।
सातवें अध्ययन का नाम महापरिन्ना – महापरिज्ञा है। यह अध्ययन वर्तमान में अनुपलब्ध है किन्तु इस पर लिखी गई नियुक्ति उपलब्ध है। इससे पता चलता है कि नियुक्तिकार के सामने यह अध्ययन अवश्य रहा होगा। नियुक्तिकार ने "महापरिन्ना" के "महा" एवं "परिन्ना" इन दो पदों का निरूपण करने के साथ ही परिन्ना के प्रकारों का भी निरूपण किया है एवं अन्तिम गाथा में बताया है कि साधक को देवांगना, नरांगना, व तिर्यञ्चांग इन तीनों का मन, वचन व काया से त्याग करना चाहिए। इस परित्याग का नाम महापरिज्ञा है। इस अध्ययन का विषय नियुक्तिकार के शब्दों में "मोहसमुत्था परिसहुवसग्गा" अर्थात् मोहजन्य परीषह
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