________________
दृष्टिवाद*
D स्व. आचार्य देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री नामकरण :- दृष्टिवाद बारहवाँ अंग है, जिसमें संसार के सभी दर्शनों एवं नयों का निरूपण किया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसमें सम्यक्त्व आदि दृष्टियों - दर्शनों का विवेचन किया गया हो वह दृष्टिवाद है।
दृष्टिवाद विलुप्त हो चुका है। वह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। भगवान महावीर के 170 वर्ष पश्चात् श्रुतकेवली भद्रबाहु हुए। उनके स्वर्गगमन के पश्चात् दृष्टिवाद का शनैः - शनैः लोप होने लगा और वीर निर्वाण सम्वत् 1000 में वह पूर्णरूप से लुप्त हो गया। अर्थात् देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्वर्गगमन के बाद वह शब्द रूप से पूर्णतया नष्ट हो गया और अर्थरूप में कुछ अंस बचा रहा।'
दृष्टिवाद के नाम :- ठाणांग में दृष्टिवाद, हेतुवाद, भूतवाद, तथ्यवाद, सम्यग्वाद, धर्मवाद, भाषाविचय या भाषाविजय, पूर्वगत, अनुयोगगत और सर्वप्राणभूतजीव-सत्वसुखावह ये दश नाम दृष्टिवाद के प्राप्त होते हैं।'
विषय वस्तु :- समवायांग व नन्दी में परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका ये दृष्टिवाद के पाँच विभाग बताये हैं। इनके विभिन्न भेद-प्रभेदों का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि प्रथम विभाग में लिपि विज्ञान और सर्वांग पूर्ण गणित विद्या का विवेचन था। द्वितीय विभाग में छिन्नछेदनय, अछिन्नछेदनय, त्रिकनय, चतुर्नय की परिपाटियों का विस्तार से विवेचन था। उसमें यह भी बताया गया था कि प्रथम और चतुर्थ ये दो परिपाटियाँ निग्रंथों की थीं और अछिन्नछेदनय एवं त्रिकनय की परिपाटियाँ आजीविकों की थीं। तृतीय विभाग में 14 पूर्वो की विस्तार से चर्चा विचारणा थी। प्रथम उत्पादपूर्व में सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों की प्ररूपणा उत्पाद की दृष्टि से की गई थी। इस पूर्व का पद परिमाण एक कोटि पद था) द्वितीय अग्रायणीयपूर्व में सभी द्रव्य पर्याय और जीवविशेष के अग्र-परिणाम का वर्णन था।
*जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा, प्रका श्री तारक गुरू जैन ग्रन्थालय, उदयपुर से साभार उद्धृत
--सम्पादक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org