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278 : अंग साहित्य मनन और मीमांसा
(2) दृष्टयो दर्शनानि, वदनं वादः दृष्टीनां वादः दृष्टिवादः, दृष्टीनां वा पातो यत्रासौ दृष्टिपातः, सर्वनयदृष्टयः एवेहाख्यायन्त इत्यर्थः।'' (दिट्टीण दंसणाणि वदणं-वादो दिट्टीणं वादो दिट्टीवादो, दिट्टीणं वा पादो जत्थ तत्थ दिट्ठिपादो, सव्वणय - दिट्टी एव ईहादि-अक्खाणं त्ति अत्थो।) अर्थात् दृष्टि का अर्थ दर्शन है, वाद का अर्थ वदन है अतः जहाँ दृष्टियों का/विविध विचारों/दर्शनों के अभिप्राय हैं वहाँ दृष्टिवाद है/या जहाँ पर नाना प्रकार की दृष्टियों का समागम होता है वहाँ दृष्टिपात/दृष्टिवाद है। जो सर्वनय की दृष्टि का ही प्रयोजन है।
(3) दुष्टयो दर्शनापि नयाः उद्यन्ते अभिधीयन्ते पतन्ति वा अवतरन्ति यस्मिन्वर्णे दृष्टिवादो दृष्टिपातो वा।"
(दिट्टीणं दंसणाणिं णया, उज्जंते अहिहीयंते पडति वा अवतरंति जस्सिं तस्य दृट्टिवादो दिट्ठिपादो वा)
अर्थात् दृष्टियों का नाम दर्शन है और दर्शन विविधनय / मार्ग हैं अर्थात् जिसमें विविधनय है, विविधनय कथन किए जाते हैं, समाहित हैं, या प्रकट होते हैं वहाँ दृष्टिवाद या दृष्टिपात होता है। ‘“दिट्टिवादस्य पंच-अत्थाहियारा"" दृष्टिंवाद के पांच अधिकार हैं :- परियम्म-सुत्त-पढमाणुयोग- पुव्वगय- चूलिया चेदि ।
(क) परियम्मं पंचविहं :- चंदपण्णत्ती सूरपण्णत्ती जंबूदीवपण्णत्ती दीवसायर - पण्णत्ती वियाह-पण्णत्ती चेदि
(i) चंदपण्णत्ती - छत्तीस - लक्ख - पंच- पद - सहस्से हि (3605000)
चंदाउ - परिवारिद्धि-गइ-बिंबुस्सेह - वण्णणं कुणदि ।
(ii) सूरपण्णत्ती - पंच - लक्ख - तिण्णि- सहस्सेहि (503000)
सूरस्साठ - भोगाव भोग- परिवारिद्ध गई- बिंबुस्सेहदिण-किरणुज्जोव-वण्णणं कुणदि ।
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