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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 269
विपांक शब्द का अर्थ :- कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम। (धवला, 14/5)। आचार्य वीरसेन ने कर्मों के उदय और उदीरणा को विपाक कहा है। आचार्य पूज्यपाद के अनुसार कषाय की तीव्रता व मंदता आदि भावों की विशेषता से विशिष्ट जो कर्म शक्ति होती है वह नाना प्रकार के पाक अर्थात् फल प्रदान करने में समर्थ होती है, इसलिए उन्होंने कहा “विशिष्टो नानाविधो वा पाको विपाकः।" अर्थात् विशिष्ट फल का नाम विपाक है। आचार्य अकलंक देव न विपाक का व्याख्या करते हुए यह कथन किया कि जिन कर्मों से फल शक्ति विविध रुप को प्राप्त होती है उसका नाम विपाक है। विपाक ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियों के अनुग्रह से तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के कारण नाना प्रकार के पाक को प्राप्त होती है। समवायांग वृत्ति में कथन किया गया - "विपचन विपाकः शुभाशुभकर्म परिणामः" (समवायांग अभयदेव वृ.146) अर्थात् विपचन का नाम विपाक है। शुभ और अशुभ कर्म परिणाम का फलदान विपाक कहलाता है।
विपाकसूत्रं स्वरूप एवं विश्लेषण :- "विपाकसूत्रे सुकृत दुश्कृतानाम विपाकश्चिंतयते" (त वा 1/20)। अर्थात् विपाकसूत्र में सुकृत और दुष्कृत विपाक पर विचार किया गया है।
"विवायसुत्तं णाम अंग दव्व-खेत्त कालभावे-अस्सिइण सुहासुहकम्माणं विवायं वण्णेदि" (जय धवला, 1/32)। विपाकसूत्र में द्रव्य, क्षेत्र काल
और भाव को लेकर शुभ एवं अशुभ कर्मों के विपाक का वर्णन किया गया है। अंगपण्णत्ति ग्रंथ में एक करोड़ चौरासी लाख पद प्रमाण विपाकसूत्र को बतलाया है एवं यह भी कथन किया है कि कर्मों के शुभाशुभ भाव तीव्रता, मंदता आदि की विशेषताओं से युक्त होते हैं, वे तीव्र, मंद आदि भाव द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों ही अपेक्षाओं से कर्म और कर्म की उदीरणा का प्रतिपादन करते हैं। इस प्रतिपादन में भूत, भविष्य और वर्तमान की दृष्टि भी होती है।
विपाकसूत्र परिचय :- शुभाशुभ कर्मों के परिणामों का दृष्टांत पूर्वक जिसमें कथन किया गया है, वह ग्यारहवाँ अंग आगम विपाकसूत्र है। "विवागसुयस्स दो
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