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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 263
उल्लेखित अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु बदल चुकी थी किन्तु वर्तमान में उपलब् अन्तकृत्दशा का पूरी तरह निर्माण भी नहीं हो पाया था। केवल सात ही वर्ग बने थे। वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृत्दशा की रचना नन्दीसूत्र में तत्संबंधी विवरण लिखे जाने के पूर्व निश्चित रुप से हो चुकी थी क्योंकि नन्दीसूत्रकार उसमें 10 अध्ययन होने का कोई उल्लेख नहीं करता है। साथ ही वह आठ वर्गों की चर्चा करता है। वर्तमान अन्तकृत्दशा के भी आठ वर्ग ही हैं।
उपयुक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु नन्दीसूत्र की रचना के कुछ समय पूर्व तक अस्तित्व में आ गई थी। ऐसा लगता है कि वल्लभी वाचना के पूर्व ही प्राचीन अन्तकृत्दशा के अध्यायों की या तो उपेक्षा कर दी गयी या उन्हें यत्र-तत्र अन्य ग्रंथों में जोड़ दिया गया था और इस प्रकार प्राचीन अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु के स्थान पर नवीन विषयवस्तु रख दी गयी। यहाँ प्रश्न स्वाभाविक रुप से उत्पन्न हो सकता है कि ऐसा क्यों किया गया। क्या विस्मृति के आधार पर प्राचीन अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु लुप्त हो गयी अथवा उसकी प्राचीन विषयवस्तु सप्रयोजन वहाँ यहाँ से अलग कर दी गई। .. मेरी मान्यता यह है कि विषयवस्तु का यह परिवर्तन विस्मृति के कारण नहीं, परन्तु सप्रयोजन ही हुआ है। अन्तकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु में जिन दस व्यक्तित्वों
के चरित्र का चित्रण किया गया था उनमें निश्चित रुप से मातंग, अम्बड, रामपुत्त, • भयाली (भगाली) जमाली आदि ऐसे हैं जो चाहे किसी समय तक जैन परम्परा में
सम्मान्यरुप से रहे हों किन्तु अब वे जैन परम्परा के विरोधी या बाहरी मान लिये गये थे। जिनप्रणीत अंगसूत्रों में उनका उल्लेख रखना समुचित नहीं माना गया। जिस प्रकार प्रश्नव्याकरण से ऋषिभाषित को सप्रयोजन अलग किया गया उसी प्रकार अन्तकृद्दशा से इनके विवरण को भी सप्रयोजन अलग किया गया। यह भी सम्भव है कि जब जैन परम्परा में श्रीकृष्ण को वासुदेव के रुप में स्वीकार कर लिया गया तो उनके तथा उनके परिवार से संबंधित कथानकों को कहीं स्थान देना आवश्यक था। अतः अन्तकृत्दशा की प्राचीन विषयवस्तु को बदल कर उसके स्थान पर कृष्ण और उनके
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