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246 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
(च) कायोत्सर्ग :- आत्मा में जो बुरे संकल्प लगे हुए हैं, उनको निकालने
के लिए और चित्त की शुद्धि के लिए शरीर को क्लेश देने की आवश्यकता अनुभव करके शरीर की ममता को दूर कर शरीर को
क्लेश देना और क्लेश को शांति एवं ऐच्छिक वृत्ति से सहन करना। तप की आवश्यकता इसलिए है कि जब शरीर तथा इन्द्रियाँ उन्मादी बनकर आत्मा को उन्मार्ग की ओर खींचती हैं तब उन्हें दण्ड देना आवश्यक हो जाता है। ऐसी स्थिति में ऐसा ही तप आत्म-शोधन एवं कर्म-क्षयकर बन सकता है।
प्रस्तुत आगम में अनशन तप का उत्कृष्ट क्रियात्मक चित्रण हुआ है। अनशन तप वही साधक कर सकता है जिसकी शरीर पर आसक्ति कम हो। अनशन में . अशन का त्याग तो किया ही जाता है, साथ ही इच्छाओं, कषायों और विषय-वासनाओं का त्याग भी किया जाता है। प्रारम्भ में साधक कुछ समय के लिए आहार आदि का परित्याग करता है जो इत्वरिक तप कहलाता है। जीवन के अन्तिम काल में वह जीवन-पर्यन्त के लिए आहार आदि का परित्याग कर देता है। जो यावत्कालिक तप कहलाता है। धन्य अनगार एवं अन्य दूसरे 32 अनगारों ने इन दोनों ही प्रकार के तपों की आराधना की थी।
संलेखना जैन-साधना विधि की एक प्रक्रिया है जिस साधक ने अध्यात्म की गहन साधना की है, वही संलेखना और समाधि के द्वारा मरण को वरण कर सकता है। मरण के समय जो आहार आदि का त्याग किया जाता है, उसमें मृत्यु की चाह नहीं होती अपितु वह क्रिया साधक के संयम के लिए होती है। जो शरीर साधना में सहायक न रहकर बाधक बन गया हो, जिसको वहन करने से आध्यात्मिक गुणों की शुद्धि और वृद्धि न होती हो, वह त्याज्य बन जाता है। उस समय स्वेच्छा से मरण को वरण किया जाता है। संथारा पर आत्महत्या होने का भी आरोप है, किन्तु संथारा और आत्महत्या में अन्तर है। आत्महत्या करने वाले के मन में भय, कामना, वासना, उत्तेजना और कषाय रहा हुआ होता है, किन्तु संथारे में इन सबका अभाव होता है। इसमें आत्मा के निज गुणों को प्रकट करने की तीव्रतर भावना होती है। इसमें मरण
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