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188 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
1. आनयनप्रयोग- मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु मंगाना। 2. प्रेष्यप्रयोग- मर्यादित क्षेत्र से बाहर कोई वस्तु भेजना। 3. शब्दानुपात- मर्यादित क्षेत्र से स्वयं बाहर नहीं जाना, लेकिन शब्दादि
संकेतों के माध्यम से संदेश प्रेषित करना। रुपानुपात- मर्यादित क्षेत्र से बाहर कोई प्रतीक वस्तु भेजकर उसकी सहायता से कार्य संपन्न कराना। बहिःपुद्गल प्रक्षेप- मर्यादित क्षेत्र से बाहर कंकड, पत्थर आदि
फेंककर वहां के व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करना। (ग) पौषधोपवास :- तिथिविशेष में धर्मस्थान में धर्माचार्य के संग उपवास करना पौषधोपवास व्रत कहलाता है। पौषध या प्रोषध का अर्थ है- धर्मस्थान में रहना या धर्माचार्य के संग रहना। यद्यपि इस प्रक्रिया में शरीर का रक्षण होता है लेकिन श्रावक को आध्यात्मिक लाभ मिलता है और उसकी आत्मवृद्धि होती है क्योंकि इस परिस्थिति में आत्मा को पोषण मिलता है। आचार्य अभयदेव द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी तथा चतुर्दशी को प्रोषधोपवास की तिथि मानते हैं जबकि आचार्य समन्तभद्र इस हेतु अष्टमी एवं चतुर्दशी को उत्तम पर्वतिथि कहते हैं। श्रावक को इन पर्वतिथियों में चतुर्विध आहार का त्याग करना चाहिए अथवा एकाशन पौषध के साथ उपवास रखना चाहिए। इसके 5 अतिचार निम्नलिखित हैं” :1. अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक :- पौषध हेतु प्रयुक्त
स्थान का भली प्रकार निरीक्षण न करना। 2. अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तारक :- पौषध हेतु प्रयुक्त
शय्या आदि को भली प्रकार साफ किए बिना उपयोग करना। 3. अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित उच्चार-प्रस्रवण भूमिः- मल-मूत्र
त्याग करने के स्थान का निरीक्षण नहीं करना। . 4. अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित उच्चार-प्रस्रवण भूमि :- मल-मूत्र त्यागने
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