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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 185 को घटाना और उतनी ही मात्रा में दूसरी दिशा में क्षेत्र वृद्धि करना। स्मृत्यन्तरद्धा : निर्धारित की गई मर्यादा का विस्मृत होना और भ्रमवश क्षेत्र की मर्यादा का उल्लंघन करना। ___3. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत :- मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति वस्तुओं का उपभोग और परिभोग करके करता है। किसी वस्तु का बार-बार प्रयोग परिभोग है, जबकि वस्तु का एक बार उपयोग करना उपभोग कहलाता है। भोग और परिभोग की मर्यादा निर्धारित करना ही उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत है। जैनग्रन्थों में इस हेतु 21 अथवा 26 वस्तुओं का नामोल्लेख मिलता है तथा भोजन एवं कर्म की अपेक्षा से यह दो वर्गों में बँटा है। इसके 5 अतिचार आहार की अपेक्षा से और 15 अतिचार कर्म की अपेक्षा से माने गए हैं।83 आहार-अपेक्षा से 5 अतिचार हैं-सचित्त आहार, सचित्त प्रतिबद्ध आहार, अपक्वाहार, दुष्पक्वाहार और तुच्छोषधिभक्षण। .. सचित्त आहार : सचित्त वस्तुओं का आहार ग्रहण करना । सचित्त प्रतिबद्धाहार : चेतन्य द्रव्य से संश्लिष्ट आहार ग्रहण करना। - अपक्वाहार : अग्नि आदि के द्वारा जिसका रूप, रस, गंध अन्यथा नहीं हुआ हो उस अपक्व दोष वाले आहार को ग्रहण करना। दुष्पक्वाहार : अर्द्धपक्व वस्तु का आहार करना। तुच्छोसधिभक्षण : उस वस्तु का आहार जो कम खायी जाए और जिसका अधिकांश भाग बाहर फेंक दिया जाए। ... 15 कर्मदान - कर्म की अपेक्षा जो कार्य नहीं करने योग्य हैं उन्हें कर्मादान .. कहते हैं। इनकी कुल संख्या 15 है - अंगार कर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटीकर्म, स्फोटकर्म, दन्तवाणिज्य, लक्षवाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, केशवाणिज्य, यंत्रपीडानकर्म, निर्लाघनकर्म, अवाग्निदापन, सरहदतडाग शोषण तथा असतीजनपोषण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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