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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया 121 काश्यप गोत्रीय रोहण से उद्देहगण निकला। उन्हीं गुरू के शिष्य हारितगोत्रीय सिरिगुत्त से चारणगण की उत्पत्ति हुई। भारद्वाजगोत्रीय भद्दजस से उड्डवाडियगण उत्पन्न हुआ एवं कुंडिल (कुंडलि अथवा कुडिल) गोत्रीय कमड्ढि स्थविर से वेसवाडियगण निकला। इसी प्रकार कांकदी नगरी निवासी वशिष्ठगोत्रीय इसिगुत्त से मालवगण एवं वग्घावच्चगोत्रीय सुस्थित व सुप्रतिबद्ध से कोडिक नामक गण निकला। उपर्युक्त उल्लेख में कामतिगण की उत्पत्ति का कोई निर्देशन नही है। संभव है आर्य सुहस्ति के शिष्य कामड्ढि स्थविर से ही यह गण भी निकला हो। कल्पसूत्र की स्थविरावली में कामड्ढितगण विषयक उल्लेख नहीं है किन्तु कामड्ढितकुल संबंधी उल्लेख अवश्य है। यह कामड्ढितकुल उस वेसवाडिय-विस्सवाडित गण का ही एक कुल है, जिसकी उत्पत्ति कामड्ढि स्थविर से बतलाई गयी है। उपर्युक्त सभी गण भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग दो वर्ष के बाद के भी हो सकते हैं। इसी प्रकार स्थानांग के सातवें स्थान में जामालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल इन सात निह्नवों का उल्लेख आता है। यह स्पष्ट है कि इनमें से प्रथम दो को छोड़कर शेष पाँच निह्नव भगवान महावीर के निर्वाण के बाद की तीसरी शताब्दी से छठीं शताब्दी के मध्य हुए हैं अर्थात् ई.पू. द्वितीय शती ईसा की प्रथम शती के बीच हुए है। इन निह्नवों के प्रसंग में बोटिक का उल्लेख नहीं पाया जाता । बोटिक की उत्पत्ति वीर निर्वाण संवत् 906 या 909 में मानी गयी है । अतः इतना निश्चित है कि इसमें ऐतिहासिक दृष्टि से वीर निर्वाण की छठीं शताब्दी अथवा ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद की कोई ऐतिहासिक सामग्री की सूचना इसमें नहीं है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि इस ग्रन्थ की रचना का अंतिम स्वरुप वीर निर्वाण की छठीं शताब्दि या ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी से आगे नहीं जाता। अतः यह मानना अधिक उपयुक्त है कि इस सूत्र की अंतिम योजना वीर निर्वाण की अंतिम शताब्दी में होने वाले किसी गीतार्थ आचार्य ने अपने समय तक की घटनाओं को पूर्व परम्परा से चली आने वाली घटनाओं के साथ मिलाकर की है। यदि ऐसा न माना जाये तो यह मानना पड़ेगा कि महावीर के बाद घटित होने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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