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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 105
कूटस्थ मान लिया जायेगा तो न तो विविध दुःखों का नाश होगा, और न ही मोक्षादि की प्राप्ति होगी और उस स्थिति में कूटस्थ, नित्य निष्क्रिय, जड़ात्मा 25 तत्वों का ज्ञान भी कैसे हो सकेगा। अतः अकारवाद युक्ति,
प्रमाण एवं अनुभव विरूद्ध है। आत्मषष्ठवाद :- आत्मषष्ठवाद वेदवादी सांख्य एवं वैशेषिकों का मत है। प्रो हर्मन जैकोबी इसे चरक का मत मानते हैं। इनके अनुसार अचेतन पंचमहाभूत एवं सचेतन आत्मा ये छ: पदार्थ हैं। आत्मा और लोक दोनों नित्य हैं। इन छ: पदार्थों का सहेतुक या अहेतुक किसी प्रकार से विनाश नहीं होता। ये चेतनाचेतनात्मक पदार्थ अपने-अपने स्वभाव से अच्युत रहकर सदा नित्य रहते हैं। भगवद्गीता में आत्मा की त्रिकालाबाधित नित्यता को बताते हुए कहा गया है कि जो असत् है वह हो ही नहीं सकता और जो सत् है उसका अभाव नहीं हो सकता। इसी प्रकार सांख्य सत्कार्यवाद के आधार पर आत्मा और लोक की नित्यता सिद्ध करता है।
आत्मा एवं लोक को नित्य मानने में विरोध जैन दर्शन में भी नहीं है किन्तु जैन दर्शन एकान्त नित्यता का विरोधी है। यदि आत्मा को एकान्त नित्य माना जायेगा तो आत्मा में कर्तृत्व परिणाम उत्पन्न नहीं हो सकता। कर्तृत्व के अभाव में कर्मबन्धन न होने से सुख-दुःख रुप कर्मफल भोग भी नहीं हो सकता। अतः आत्मा, पंचभूत आदि सभी पदार्थों को कथंचित् नित्य और कथंचित अनित्य तथा किसी अपेक्षा से सत् एवं किसी अपेक्षा से असत् अर्थात् सदसत्कार्य रुप न मानकर, एकान्त मिथ्या ग्रहण करना ही आत्मषष्ठवादियों का मिथ्यात्व है। प्रत्येक पदार्थ द्रव्य रुप से सत् और पर्याय रुप से असत् या अनित्य है। यहाँ शास्त्रकार ने आत्मषष्ठवादी के मत को अनेकांत की कसौटी पर कसने का सफल प्रयास किया है। __क्षणिकवाद :- बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद, क्षणिकवाद एवं प्रतीत्यसमुत्पाद पर निर्भर है। यह अनात्मवाद सर्वथा तुच्छाभाव रुप नहीं है, क्योंकि आत्मवादियों की तरह पुण्य-पाप, कर्मफल, लोक-परलोक आदि की इसमें मान्यता है। दीधनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त" और मज्झिमनिकाय के सव्वासव्व सुत्त के अनुसार महात्मा बुद्ध के समय में आत्मवाद की दो विचारधाराएँ प्रचलित थी-प्रथम शाश्वत आत्मवादी
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