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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया 101 आकाश इन पाँच तत्त्वों या पाँच महाभूतों को मानते हैं। प्राचीन लोकायतों के मत में पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार तत्त्व ही हैं। परन्तु अर्वाचीन चार्वाक मतावलम्बी इन पांच महाभूतों से ही समस्त सृष्टि की उत्पत्ति मानते हैं। पृथ्वी आदि जो पाँच महाभूत हैं, इनके शरीर रुप में परिणित होने पर इन भूतों से अभिन्न चैतन्य गुण उत्पन्न होता है। उनकी मान्यता है कि जैसे- गुड़, महुआ, आदि के संयोग से मशक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार इन भूतों के संयोग से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है "। चूंकि ये भौतिकवादी प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य कोई प्रमाण नहीं मानते, इसलिए दूसरे मतवादियों द्वारा मान्य इन पंचमहाभूतों से भिन्न परलोकगामी और सुख-दुःख भोक्ता किसी आत्मा संज्ञक पदार्थ को नहीं मानते। इस अनात्मवाद से ही शरीरात्मवाद, इन्द्रियात्मवाद, मनसात्मवाद, प्राणात्मवाद एवं विषय चैतन्यवाद फलित हैं जिसे कतिपय चार्वाक दार्शनिक मानते हैं।
नियुक्तिकार ' ने इस वाद का खण्डन किया है। अपने मत के समर्थन में नियुक्तिकार का तर्क है कि पृथ्वी आदि पंचभूतों के संयोग से चैतन्यादि उत्पन्न नहीं • हो सकते क्योंकि शरीर के घटक इन पंचमहाभूतों में से किसी में भी चैतन्य नहीं है। अन्य गुण वाले पदार्थों के संयोग से अन्य गुण वाले पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार जैसे बालू में स्निग्धता न होने से उसमें से तेल नहीं निकल सकता। स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत रुप पांच इन्द्रियों के जो उपादानकारण हैं, उनका गुण भी चैतन्य न होने से भूतसमुदाय का गुण चैतन्य नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त एक इन्द्रिय के द्वारा जानी हुई बात दूसरी इन्द्रिय नहीं जान पाती तो फिर मैनें सुना, देखा, चखा, सूंघा इस प्रकार का संकलन रुप ज्ञान किसको होगा? परंतु यह संकलन ज्ञान अनुभव सिद्ध है। इससे प्रमाणित होता है कि भौतिक इन्द्रियों के अतिरिक्त अन्य . कोई ज्ञाता है जो पांचो इन्द्रियों द्वारा जानता है और वही तत्त्व आत्मा है। यह आत्मा द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य है।
सूत्रकृतांग के दूसरे श्रुतस्कंध के प्रथम " पुण्डरीक" नायक अध्ययन के दसवें सूत्र में भी शास्त्रकार ने द्वितीय पुरुष के रुप में पंचमहाभूतिकों की चर्चा की है एवं सांख्य दर्शन को भी परिगणित किया है। यद्यपि सांख्यवादी पूर्वोक्त पांचमहाभूत
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