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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया XII
अतः यह माना जा सकता है कि इसके आस-पास ही आगमों का वर्तमान वर्गीकरण प्रचलन में आया होगा।
आगमों के वर्गीकरण की प्राचीन शैली
अर्धमागधी आगम साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन शैली इससे भिन्न रही है। इस प्राचीन शैली का सर्वप्रथम निर्देश हमें नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र (ईस्वी सन् पाँचवी शती) में मिलता है । उस युग में आगमों को अंगप्रविष्ट व अंगबाह्य इन दो भागों में विभक्त किया जाता था। अंगप्रविष्ट के अन्तर्गत आचारांग आदि 12 अंग ग्रन्थ आते थे। शेष ग्रन्थ अंगबाह्य कहे जाते थे। उसमें अंगबाह्यों की एक संज्ञा प्रकीर्णकं भी थी। अंगप्रज्ञप्ति नामक दिगम्बर ग्रन्थ में भी अंगबाह्यों को प्रकीर्णक कहा गया है। अंगबा को पुनः दो भागों में बाँटा जाता था- 1. आवश्यक और 2. आवश्यक व्यतिरिक्त । आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक आदि छः ग्रन्थ थे। ज्ञातव्य है कि वर्तमान वर्गीकरण में आवश्यक को एक ही ग्रन्थ माना जाता है और सामायिक आदि 6 आवश्यक अंगों को उसके एक-एक अध्याय रूप में माना जाता है, किन्तु प्राचीनकाल में इन्हें छः स्वतन्त्र ग्रन्थ माना जाता था । इसकी पुष्टि अंगपण्णत्ति आदि दिगम्बर ग्रन्थों से भी हो जाती है। उनमें भी सामायिक आदि को छः स्वतंत्र ग्रन्थ माना गया है। यद्यपि उसमें कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान के स्थान पर वैनयिक एवं प्रतिक्रमण नाम मिलते हैं, आवश्यक - व्यतिरिक्त के भी दो भाग किए जाते थे- 1. कालिक और 2 उत्कालिक । जिनका स्वाध्याय विकाल को छोड़कर किया जाता था, वे कालिक कहलाते थे, जबकि उत्कालिक ग्रन्थों के अध्ययन या स्वाध्याय में कालं एवं विकाल का विचार नहीं किया जाता था। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र की आगमों के वर्गीकरण की सूची निम्नानुसार है:
श्रुत (आगम)
(क) अंगप्रविष्ट
1. आचारांग
2. सूत्रकृतांग 3. स्थानांग
4. समवायांग
5. व्याख्याप्रज्ञाप्ति
ज्ञाताधर्मकथा
6.
7. उपासकदशांग
8. अन्तकृत्दशांग
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(क) आवश्यक
1. सामायिक
2. चतुर्विंशतिस्तव
3. वन्दना
4. प्रतिक्रमण
5.
कायोत्सर्ग
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(ख) अंगबाह्य
(ख) आवश्यक व्यतिरिक्त
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