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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 97
उपसर्गसहन, कामपरित्याग, और अशरणत्व आदि का प्ररुपण है। "उपसर्गपरिज्ञा" में श्रमण धर्म का पालन करते समय उपस्थित होने वाले विभिन्न उपसर्गों का सांगोपांग विवेचन है। "स्त्रीपरिज्ञा" अध्ययन में स्त्रीजन्म उपसर्ग तथा साधु को उससे बचने तथा ब्रह्मचर्य में स्थिर रहने की आवश्यकता को बतलाया गया है। "नरकविभक्ति" में नरक के घोर दुःखों का वर्णन है। वीरस्तुति' में अनेक गुणों से विभूषित भगवान महावीर की महिमा का वर्णन विविध उपमाओं द्वारा किया गया है। "कुशील" परिभाषित नामक सातवें अध्ययन में कुशीलकृत जीव हिंसा एवं उसके दुष्परिणाम तथा सुशील साधक के आचार विचार के विवेक सूत्र, "वीर्य' अध्ययन में वीर्य संबंधी विवेचन, "धर्म'' में जिनोक्त श्रमण धर्म का निरुपण, "समाधि' अध्ययन में समाधि प्राप्ति के प्रेरणा सूत्र विवेचित हैं, "मार्ग'' में महावीरोक्त मार्ग को सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादित करते हुए अहिंसादि धमों का निरुपण, "समवसरण'' नामक अध्ययन में एकान्त अज्ञानवाद, क्रियावाद, विनयवाद का खण्डन, "याथातथ्य" में उत्तम साधुआदि के लक्षण, "आदानीय'' में स्त्री सेवन आदि के त्याग का विधान, "ग्रन्थ" में गुरुकुलवासी साधु द्वारा शिक्षा ग्रहण विधि तथा गुरुकुलवास के महत्त्व और लाभ, तथा "गाथा" अध्ययन में माहण, श्रमण, मिक्षु और निर्ग्रन्थ की व्याख्या की गयी है। द्वितीय श्रुतस्कंध के "पुण्डरीक अध्ययन में लोक को पुष्करिणी की संज्ञा देते हुए तज्जीवतच्छरीरवाद आदि मतों का खण्डन, तथा अशन, पान, खादिम, स्वादिम रुप आहारग्रहण विधि, "क्रियास्थान" अध्ययन में 13 क्रियास्थानों का वर्णन, "आहारपरिज्ञा" अध्ययन में अनेकविध वनस्पति कायिक जीवों की उत्पत्ति, मनुष्य तथा त्रस प्राणियों की उत्पत्ति एवं समुच्चय रुप से समस्त जीवों की आहारादि प्रक्रिया का निरुपण किया गया है। "प्रत्याख्यान" अध्ययन में अप्रत्याख्यानी आत्मा का स्वरुप तथा जीवहिंसा हो जाने पर प्रत्याख्यान की आवश्यकता, अनाचार श्रुत' अध्ययन में साधुओं के अनाचार के निषेध सूत्र, आर्द्रकीय' में गोशालक,शाक्यमिक्षु, ब्राह्मण, एकदण्डी तापसे के साथ आर्द्रक मुनि संवाद एवं"नालन्दीप' नामक अंतिम अध्ययन में गौतम गणधर का नालन्दा में पार्श्वनाथ शिष्य उदक-पेदाल पुत्र के साथ वाद-विवाद का वर्णन है।
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