________________
88. : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
वाली सभी घटनायें किसी गीतार्थ आचार्य द्वारा इस सूत्र में पीछे से जोड़ दी गयी है। वेसे यह मानने में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए कि आगमों को ग्रन्थबद्ध करने वाले देवर्धिगणिक्षमाश्रमण ही स्थानांग और समवायांग को अन्तिम रुप देने वाले रहे होंगे। यद्यपि इसका यह तात्पर्य भी नहीं है कि ग्रन्थ की सम्पूर्ण सामग्री ही अर्वाचीन या परवर्ती है। इसका तात्पर्य मात्र यह है कि ग्रन्थ को अंतिम स्वरुप कब मिला। यद्यपि यह मानना कि यह आगम गणधर कृत ही है और श्रमण भगवान् महावीर ने अपनी सर्वज्ञता में भविष्य काल की घटनाओं को देखकर उनका विवरण प्रस्तुत कर दिया था, व्यक्तिगत श्रद्धा का विषय हो सकता है, परन्तु गवेषणात्मक रुप से तर्क संगत नहीं लगता। मात्र यही नहीं यदि महावीर ने भविष्य काल की घटनाओं को कहा था तो उनके क्रियापद भविष्यकालिक होने चाहिए थे न कि भूतकालिक। जबकि वास्तविकता यह है कि मूल आगम में ये क्रियापद भूतकालिक हैं। अतः यह मानने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए कि इस ग्रन्थ में महावीर के काल से लेकर वीर निर्वाण की छठी शताब्दी के अन्त तक की सामग्री का संकलन होता रहा है क्योंकि गोष्ठामाहिल का इसमें उल्लेख है और उसका काल वीर निर्वाण 584 वर्ष उल्लिखित है। पं. दलसुख भाई मालवणिया का यह स्पष्ट विचार है कि वीर निर्वाण 585 अर्थात ईसा की प्रथम शताब्दी के पश्चात् इसमें किसी सामग्री की अभिवृद्धि नहीं हुई है क्योंकि इसमें वीर निर्वाण स. 609 में होने वाले निह्नव "बोटिक" का उल्लेख नहीं है। यदि स्थानांग में वीर निर्वाण 980 या 993 में हुई वल्लभी वाचना तक परिवर्धन या परिवर्तन हुए होते तो इसमें आठवें स्थान में 8 निह्नवों का उल्लेख अवश्य होता। इनता ही नहीं इसमें उल्लिखित अंग ग्रंथों और उनके अध्ययनों का परिचय भी परिवर्तित हो गया होता। स्थानांग में जिन दस दशाओं और उनके उध्ययनों का उल्लेख मिलता है, वह वल्लभी वाचना के समय के उन ग्रन्थों के अध्ययनों में समवायांग के अनुवाद के 231 से 263 पृष्ठ तक की टिप्पणियों में विस्तार से उल्लिखित है। इसी प्रकार अंग ग्रन्थों की विषयवस्तु में स्थानांग में जो उल्लेख हैं वे समवायांग नंदीसूत्र और नंदी चूर्णी से किस प्रकार भिन्न हैं इसकी चर्चा हमने इसी ग्रन्थ में उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरणदशा और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org