________________
प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : X अभिहित लगभग निम्न 22 ग्रन्थों का उल्लेख किया है इनमें से अधिकांश महावीर विद्यालय, बम्बई से पइण्णयसुत्ताई नाम से 2 भागों में प्रकाशित हैं। अंगविद्या का प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी की ओर से हुआ है। ये बाईस प्रकीर्णक निम्न है :
1. चतुःशरण 2 आतुरप्रत्याख्यान 3. भक्तपरिज्ञा 4. संस्तारक, 5 तंदुलवैचारिक, 6. चन्द्रावेध्यक,7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणिविद्या, 9. महाप्रत्याख्यान, 10. वीरस्तव, 11. ऋषिभाषित, 12 अजीवकल्प, 13. गच्छाचार, 14 मरणसमाधि, 15. तित्थोगालिय, 16. आराधनापताका, 17. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, 18 ज्योतिष्करण्डक, 19. अंगविद्या, 20. सिद्धप्राभृत, 21 सारावली और 22. जीवविभक्ति। .
इसके अतिरिक्त एक ही नाम से अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं, यथा"आउरपच्चक्खान" के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। उनमें से एक तो दसवीं शती के आचार्य वीरभद्र की कृति है।
नन्दी और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जाते हैं। इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के कुछ आचार्य जो 84 आगम मानते हैं, वे प्रकीर्णकों की संख्या 10 के स्थान पर 30 मानते हैं। इसमें पूर्वोक्त 22 नामों के अतिरिक्त निम्न 8 प्रकीर्णक और माने गये हैं :- पिण्डविशुद्धि, पर्यन्तआराधना, योनिप्राभृत, अंगचूलिया, बंगचूलिया, बृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना और कल्पसूत्र।
जहाँ तक दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वह स्पष्टतः इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करती हैं, फिर भी मूलाचार में आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान से अनेक गाथायें उसके संक्षिप्त प्रत्याख्यान और बृहत् प्रत्याख्यान नामक ग्रन्थ में अवतरित की गई है। इसी प्रकार भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति, आराधनापताका आदि अनेक प्रकीर्णकों की गाथायें अवतरित हैं। ज्ञातव्य है कि इनमें अंग बायों को प्रकीर्णक कहा गया है।
चूलिकासूत्र
चूलिकासूत्र के अन्तर्गत नन्दीसूत्र और अनुयोगद्धार ये ग्रन्थ माने जाते हैं। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि स्थानवासी परम्परा इन्हें चूलिकासूत्र न कहकर मूलसूत्र में वर्गीकृत करती है फिर भी इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों को मान्य रहे हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 6 छेद, 10 प्रकीर्णक, 2 चूलिकासूत्र, ये 45 आगम श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में मान्य हैं। स्थानवासी व
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org