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श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से श्रुतज्ञान होता है तथापि यह श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक ही होता है। मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान नहीं होता है। मतिज्ञान सामान्य ज्ञान है और श्रुतज्ञान विशेष ज्ञान है। एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक मिथ्यात्व गुणस्थान से 12 वें गुणस्थान (क्षीणकषाय) तक श्रुतज्ञान होता है तथापि यहाँ पर मोक्षमार्ग का वर्णन होने से सुश्रुतज्ञान विवक्षित है। यह श्रुतज्ञान सम्यग्दृष्टि जीव को ही होता है। शब्दात्मक उपदेश सुनकर जो श्रुतज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान यहाँ विवक्षित रूप से लिया है। इसका संक्षिप्त वर्णन यहाँ पर है।
श्रुतज्ञान के मूल भेद दो हैं- अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य 1 ...
बुद्धि आदि अतिशय वाले गणधरों के द्वारा रचित अंग प्रविष्ट 12 प्रकार का है। भगवान अर्हन्त सर्वज्ञ देवरूपी हिमाचल से निकली हुई वचनरूपी गंगा के अर्थरूपी निर्मल जल से प्रक्षालित है अन्त:करण जिनका ऐसे बुद्धि आदि ऋद्धियों के धनी गणधरों के द्वारा ग्रन्थरूप से रचित आचारादि बारह अंगों को अंगप्रविष्ट कहते हैं। जैसे- (1) आचारांग, (2) सूत्रकृतांग, (3) स्थानांग, (4) समवायांग, (5) व्याख्याप्रज्ञप्ति, (6) ज्ञातृधर्मकथा, (7) उपासकाध्ययनांग, (8) अन्तकृदशांग, (9) अनुत्तरौपपादिकदशांग, (10) प्रश्नव्याकरण, (11) विपाकसूत्र और (12) दृष्टिवाद।
(1) आचारांग :- आचारांग में आठ प्रकार की शुद्धि, पाँच समिती, तीन गुप्तिरूप चर्या का विधान किया जाता है। "
(2) सूत्रकृतांग :- सूत्रकृतांग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्य, अकल्प्य, छेदोपस्थापना आदि व्यवहार धर्म की क्रियाओं का निरूपण है।
(3) स्थानांग :- स्थानांग में अर्थों के एक-एक दो-दो आदि अनेके आश्रयरूप से पदार्थों का कथन किया जाता है।
4. समवायांग :- समवायांग में सर्व पदार्थों की समानता रूप से समवाय (समानता) का विचार किया गया है। वह समवाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का है। जैसे- धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव के तुल्य असंख्यात प्रदेश होने से इन्हें द्रव्यरूप समवाय (समानता) कहा
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